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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगरकोटके तीन स्तवन और विशेष ज्ञातव्य लेखक व संग्राहक-श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा, बीकानेर 'श्री जैन सत्य प्रकाश' के क्रमांक ११७ से ११९ में डॉ. बनारसीदासजोका 'जैन इतिहासमें कांगडा ' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है । हमारे संग्रहमें नगरकोटके तीन स्तवन हैं, जिनसे इस सम्बन्धमें कुछ नई जानकारी मिलती है, वे एवं कई अन्य ऐतिहासिक नवीन बातें जो मेरी जानकारीमें हैं, इस लेखमें प्रकाशित की जा रही हैं। १. जयसागर उपाध्यायने उक्त तीर्थको यात्रा सं. १४८४ में को थी उस समय चार मंदिरोंका उल्लेख किया गया है, पर इस लेखके साथ दी जानेवाली सं. १४९७ की चैत्यपरिपाटीमें पांच मंदिरोंका उल्लेख किया है वह पांचवां श्रीमाल धिरिया (धीरराज) कारित पासनाथ मंदिर प्रतीत होता है। 'विज्ञप्तित्रिवेगी 'में गोपाचलपुरमें धिरराजकारित शांतिनाथ मंदिरका उल्लेख है। संभव है चैत्यपरिपाटिका धिरिया और ये अभिन्न हों। २. नगरकोटके साधु क्षीमसिंहकारित खरतरविधिचैत्य-शांतिनाथकी प्रतिष्ठा जिनेश्वरसूरिजीके करनेका उल्लेख 'विज्ञप्तित्रिवेणी' में है, पर उसका संवत् नहीं दिया गया, जबकि 'खरतरगच्छगुर्वावली' जिसे हम श्रीमान् जिनविजयजोके सम्पादकत्वमें सिंघो जैन प्रन्थमालासे प्रकाशित करवा रहे हैं उसमें उसका निम्नोक्त उल्लेख है “सं. १३०९ श्रीप्रह्लादनपुरे मार्गशीर्ष सुदि १२ समाधिशेखर-गुणशेखर-देवशेखर साधुभक्त-वीरवल्लभमुनिनां तथा मुक्तिसुन्दरी साध्वी दीक्षा । तस्मिनेव वर्षे माघ सुदि १० श्रीशान्तिनाथ-अजितनाथ-धर्मनाथ-वासुपूज्य-मुनिसुव्रत-सीमंधरस्वामि - पद्मनाथप्रतिमायाः प्रतिष्ठा कारिता च सा. विमलचन्द्रहीरादि समुदायेन । तथाहि साधु विमलचन्द्रेण श्रीशान्तिनाथो नगरकोटप्रासादस्थो महाव्यव्ययेन प्रतिष्ठापितः, अजितनाथो बल साधारणेन, धर्मनाथो विमलचन्द्रपुत्रक्षेमसिंहेन...." ____अर्थात् उक्त शांतिनाथमूर्तिकी प्रतिष्ठा बहुत द्रव्यव्ययसे क्षेमसिंहके पिता साधु विमल. चन्द्रने सं, १३०९ के माघ सुदि १० को (प्रह्लादनपुरमें) श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे कराई थी। ३. जयसागरजीके पश्चात् ये मन्दिर कबतक विद्यमान थे इसका कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं था, पर इस लेखमें दिये जानेवाले नं. २-३ के स्तवनोंसे सं. १६३४ या इसके कुछ पीछे तो विद्यमान थे और साधुलोग यात्रार्थ जाते थे, यह सिद्ध है। इसके पश्चात् इनका विनाश कब हुआ यह तो निश्चित नहीं पर सं. १८७४ चैत्र सुदि ७ को श्रीज्ञानसारजीरचित जिनप्रतिमास्थापनग्रन्थके अनुसार, उस समयसे पूर्व ही कांगडेकी प्रतिमा क्षेत्रपालरूपसे पूजी जाने लगी थी यह सिद्ध ह, यथा.... "जिम उत्तर दिशामें कांगडो तीर्थ छे ते सेतुंजाजीना कितरमा एक उद्धारनी प्रतिमाने क्षेत्रपाल करी पूजै छै ते जैनीने वांदवी पूजवी नहीं ।" यहां, यहाँकी प्रतिमा शत्रुजयके कितनवे उद्धारको कही गई है वह दूरवर्ती प्राचीन For Private And Personal Use Only
SR No.521615
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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