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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ Pष ११ प्रशंसा करते हुए पूर्ण प्रति अन्वेषण करनेकी ओर हमें प्रेरित किया । हमें इस प्रतिको देखनेकी जिज्ञासा हुई और एक बार हम गंगाशहरमें स्थित तेरापंथी संप्रदायके पूज्यजीके पास गये। उन्होंने सहर्ष १६ वीं शतीकी लिखी हुई सुन्दर और अपूर्ण प्रति दिखाई । हमने उसे देखकर कुछ नोट करनेकी इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अपने साम्प्रदायिक नियमकी आपत्ति दर्शाई, हमें तो इसीसे सन्तोष हुआ कि एवं उच्च कोटिका नवीन महाकाव्य मिला । गत वर्ष बंबई जाते हुए रेलमें तेरापंथी सभाके कार्यकर्ता गंगाशहरनिवासी भाई श्री नथमलजी बनोटने भरतेश्वर-बाहुबलि महाकाव्यकी प्रति आगराके श्रीविजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमंदिरमें होने व उसकी तेरापंथी समाज द्वारा नकल करवाकर अधूरी प्रतिको पूर्ण करवानेका शुभ संवाद दिया। हमने आगराके श्रीविजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमंदिरमें जा कर देखा तो इस महाकाव्यकी दो प्रतियां मिली जिनमें एक संवत् १६५९ की और दूसरी २० वीं शतोकी थी। संभवतः दूसरी प्रति पहलीकी नकल होगी, क्योंकि दोनो प्रतियोंमें ग्रन्थकारकी कोई प्रशस्ति नहीं है अतः इसका रचनास्थान, रचनाकाल आदिकी तिथि अज्ञात है। पहली प्रति संवत् १६५९ के भादवा वदि १३ के दिन लिखी हुई है। इसके पत्र ६६ हैं, प्रत्येक पृष्ठ में १४ पंक्ति और एक एक पंक्तिमें ४३-४४ अक्षर हैं। दूसरी प्रति १२२ पत्रोंकी और वीसवीं शतीकी लिखी हुई है । वह ग्रंथ १८ सोंमें समाप्त होता है जिनमें क्रमशः ७९, ९६, १०७, ७९, ८१, ७५, ८३, ७५, ७७, ७५, १०५, ७३, ६७, ७८, १३१, ८१, ८९ और ८३ श्लोक हैं। समस्त श्लोक १५३४ हैं, ग्रंथाग्रंथकी संख्या लिखी हुई नहीं है । ग्रंथके आदि और अंतिम श्लोकके साथ साथ प्रत्येक सर्गका अंतिम अंश दिया जाता है, ताकि प्रत्येक सर्गका प्रतिपादित विषय भी ज्ञात हो जाय। इस महाकाव्यके रचयिता कवि पुण्यकुशल तपागच्छीय पं. सोमकुशलके शिष्य थे और यह ग्रंथ श्रीविजयसेनसूरिके राज्यमें अर्थात् संवत १६५२-१६५९ के बीच में बना है। आदिः-अर्थार्षभिर्भारतभूभुजां बलाद् भूतातपत्रः स्वपुरीमुपागतः । विमृश्य दूतं प्रजिघाय वाग्मिनं ततौजसे तक्षशिलां महाभुजे ॥१॥ सर्गेोंके अंतिम अंश: इति श्री पं. सोमकुशलगणिशिष्य-पुण्यकुशलगणिविरचिते भरतबाहुबलिसंवादे महाकाव्ये भरतदूतागमो नाम प्रथमः सर्गः । इति श्री पं. सोमकुशलशिष्य-पुण्यकुशलविरचिते भरतबाहुबलिसंवादेमहा काव्ये दूत. वाक्योपन्यासवर्णनो नाम द्वितीयसर्गः ॥२॥ . इति श्री पं. सोमकुशलशिष्य-पुण्यकुशलविरचिते भरतबाहुबलिमहाकाव्ये दूतप्रत्यागमो नाम तृतीयसर्गः ॥३॥ इति श्री पं. सोमकुशलगणिशिष्य-पुण्यकुशलविरचिते भरतबाहुबलिभहाकाव्ये उन्माददीपनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521615
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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