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जैन-इतिहासमें कांगड़ा'
लेखकः--डा. बनारसीदासजी जैन लाहौर पंजाबमें जैनधर्म संबन्धी जो यत्किंचित् सामग्री इस समय तक प्राप्त हुई है, उसके आधार पर यह बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि यहां जैनधर्मका आगमन बहुत प्राचीन कालमें हो गया था और यहां इसका इतिहास भी बड़ा उज्ज्वल और गौरवशाली रहा है। इसके मानने वाले अधिकतर व्यापारी या राज-कर्मचारी रहे हैं जिनके मूल पुरुष यहांके वासी नहीं थे । पंजाबमें जैनधर्म देशव्यापी कभी नहीं हुआ, अर्थात् यहांकी साधारण जनतामें इसका प्रचार नहीं हुआ। लेकिन फिर भी यहांकी जनता जैनधर्मसे सर्वथा अपरिचित भो न रही थी क्योंकि जैन साधु ग्रामोंमें ठहरते हुए और उपदेश देते हुए विहार करते थे । इससे कई भव्य ग्रामीण पुरुष इस धर्मसे परिचित हो जाते और कुछ अंशों तक इसका पालन भी करते थे। इसके अतिरिक्त यति या “पूजों ने भी नगरों और कस्बोंमें अपने डेरोंका जाल बिछाया हुआ था। ये लोग वैद्यक और ज्योतिषकी प्रैक्टिस करते थे । इनके द्वारा भी ग्रामीण जनताको जैनधर्मका कुछ २ परिचय हो जाता था।
पंजाबमें मिले हुए जैनधर्मके प्राचीन अवशेष यह प्रकट करते हैं कि यहां भिन्न २ समय पर जैनधर्मके भिन्न २ केन्द्र थे । जैसे-तक्षशिला, सिंहपुर, पार्वतिका, नगरकोट (कांगड़ा), लाभपुर (लाहौर) आदि । इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि उस २ समय जैनधर्म उस २ केन्द्र तक ही सीमित था। इसके अनुयायी और स्थानोंमें भी पाये जाते थे। अपनी संख्याकी अपेक्षा इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत ऊंची थी।
सं. १००० से लेकर सं. १६०० तक कांगडा बड़ा महत्वपूर्ण जैन केन्द्र रह चुका है। यह नगर रेलके रास्ते लाहौरसे १७० मोल पूर्वोत्तर दिशामें स्थित है। इसका अक्षांश
१. इस लेखको सहायक पुस्तकें(1) Sir Alexander Cunningham:
Archaeological survey of India Report for the year 1872-73; Vol V (2) Sir John Marshall: Archaeological survey of India, Annual
Report 1905-06. (3) Gazetteer of the Kangra District. 1926.
(4) मुनि जिनविजयद्वारा संपादित-विज्ञप्तित्रिवेणिः:। भावनगर-सन् १९१६. २. देखिये-बाबूराम जैन द्वारा लिखित "क्रान्तिकारी जैनाचार्य "में मेरी भूमिका । जीरा
(पंजाब) सं. १९९२ । ३. देखिये-भावनगरके साप्ताहिक "जैन"के ३।१०। ४३ तथा १७ । १० । ४३ के अंक और
"जिनवाणी" का अकतूबर ४ का अंक ।
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