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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . श्री सत्य [पई ॥ श्रीकोमलगच्छानी पडावली लिख्यते ॥ (छंद छप्पय) प्रथमपट्टअधिरूढ, पार्श्वजिन ज्ञानप्रकाशक । संजमश्रुतसंपन्न, अंखिलअज्ञानविनाशक ।। अहिबालकप्रतिपालं, कमठकुत्सितमुनित्रासक । शरणागतभयहरण, भय भविजनभयनाशक || वसुवेद (८४) संख्य जिनपट्ट अवराजत शुम जिनधर्मधर संचियायचरणसेवमनिरत सिद्धहरि श्रीपूज्यवर ॥१॥ द्वितीय पट्ट (२) शुभदत्त, तृतीय (३) हरदत्त सुजानहुं । चसुरंथ (8) आर्यसमुद्र, सकलगुनसागर मानहुं ॥ पंचम (५) केशीकुमर, भूप परदेसिय बुद्धे । षष्ठ (६) स्वयंप्रभसरि, यक्षके तनमन सुद्धे ॥ वसुवेद० ॥२॥ (७) श्रीरत्नप्रभसरि, पट्ट सप्तम जब लिनहु । मंत्रीसुतहि जिवाय, गच्छ उपकेश सुकिन्नहु ॥ कर प्रसन्न सचियाय, कर्म हिंसादिक सुद्धे । लक्ष तीन सिद्धिव्युह, सह शिष्यन प्रतिबुद्धे । वसुवेद० ॥३॥ अष्टमपट्टप्रविष्ट, यक्षप्रतिबोधप्रकाशक । (८) यक्षदेव आचार्य, संघजनविघ्नविनाशक ।। नवमपट्टअधिरूढ, (९) ककसरि गुनपूरन । (१०) देवगुप्तमरिसु पट्ट, दिगदोषविचूरन # वसुवेद० ॥४॥ पट्ट इकादश पूज्य (११) सिद्धसरि पुन बारहु । (१२) श्रीरत्नप्रभसूरि, त्रयोदशपट्ट विचारहुं । (१३) यक्षदेवमरिसु, (१४) ककसूरि मनुसंजक । वीरप्रकृतिकी विकृति,स्नानशुभविधिसनभंजक | वसुवेद० ॥५॥ (१५) देवगुप्तसूरिनु, पंचदशपट्टप्रमांनहुँ । शशिरसपट्टारूढ, (१६) सिद्धसरि पुन मनिहु ॥ (१७) श्रीरत्नप्रभसरि, सप्तदश पट्ट वखानिय । (१८) यक्षदेवसूरि जु पट्ट, अष्टादश जानिय ॥ वसुवेद० ॥६॥ चंदनंदपंट्ट (१९) कक्कसूरिं, गुनज्ञानप्रविनहुँ।। (२०) देवगुप्तचरितु विशफ्ट, अपंततिच्छिनहु ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521610
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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