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उपकेशगच्छ-पावली संपादक-पूज्य मुनिमहाराज श्री कांतिसागरजी साहित्यालंकार प्रस्तुत पहावली-यहां पर जो पट्टावली प्रकाशित कराई.जा रही है वह उपकेश गच्छसे संबंधित है । इसमें मात्र आचार्योंके नाम ही दिये हैं, और कोई ऐतिहासिक ज्ञातव्य नहीं है, अत: 'पट्टावलो' के बनिस्बत इसे ' नामावली ' कहना अधिक उपयुक्त जंचता हैं।
पट्टावलीवर्णित आचार्योंके प्रतिमालेख व उनकी साहित्यसेवाका परिचय देनेका विचार था, किन्तु समयाभावसे वह छोड दिया है। सम्पूर्ण पट्टावलीको देखनेसे विदित होता है कि पट्टपरंपरा बतलाते हुवे कहीं पर किसी भी आचार्यका संवत् नहीं आता, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बडी भारी त्रूटी है, तथापि पट्टापरंपराके लिहाजसे इसका महत्त्व अवश्य है।
छंद-पट्टावलीकी भाषा हिन्दी है, रचनाशैलीमें चारणी प्रभाव-स्पष्ट है, रचयिताने छप्पय छंदमें इसे गुंफित किया है, जो भाषासाहित्यका एक प्रमुख लोकप्रिय छंद है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग जैन कवि विनिर्मित अपभ्रंश काव्यमें पाया जाता है, संभवतः जैन कवि ही इसके रचयिता भी हो, क्योंकि अपभ्रंश कालके बाद भी जैनियोंने इस छंदको बहुत अपनाया है । पुरातन बहुतसे जैनाचार्यगुणवर्णित पद्य इसी छंदमें उपलब्ध होते हैं। राजस्थानी भाषाके वीररसात्मक साहित्यके लिये तो यह छंद बहुत ही उपयुक्त है। इसमें मनहरण करनेकी अमोघ शक्ति है, साथ ही घनाक्षरी भी बहुत अच्छे ढंगसे प्रकट की जा सकती है। छप्पय याने षट्पद (छहपद), हिन्दीमें एक प्रकारका छप्पय प्रसिद्ध है पर राजस्थानी साहित्यमें इसके तीन भेद पाये जाते है-(१) छप्पय (२) शुद्ध छप्पय, (३) ठोढो छप्पय इन तीनोंके उदाहरण, नरोत्तमदास स्वामीने “राजस्थानी " वर्ष ३ अंक ४ पृ. ३९ में दिये हैं,-प्रस्तुत पट्टावली. का छंद छप्पयकी प्रथम श्रेणीमें आ सकता है। मेरे संग्रहके हस्तलिखित रूपदीपक पिंगल [ नि. १७७६ भादो सुदि २ गुरुवार ] में बताया है कि कवित्त ही छप्पय है, और राजस्थानी भाषामें कवित्तको ही छप्पय कहते हैं। छप्पय और कवित्तके लक्षणात्मक विवादमें मैं इस समय नहीं पडता, पर इतना तो कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि प्रस्तुत पट्टावलीमें प्रयोजित छंदमें छप्पयके सम्पूर्ण-लक्षण चरितार्थ नहीं होते।
संवत १९६० चैत्र शुक्ला तृतीया मंगलवारको प्रस्तुत पट्टावली आचार्य श्रीसिद्धसूरिजीने निर्माण की । यह पट्टावली आधुनिक होते हुए भी इसके रूप पुरातनसे प्रतीत होते हैं। पट्टाबलीकी मूल प्रति पाटनमें "केसरबाई ज्ञानमंदिर में सुरक्षित है, जब मैं संवत् १९९५-९६में बबईमें चातुर्मास था तब मेघजीभाईने इसकी प्रेस कॉपी मुझे भेजी थी, अतः व अनेकशः धन्यवादके पात्र है। यह सर्वप्रथम "श्री जैन सत्य प्रकाश" में ही प्रकट होती है।
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