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33८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
वर्ष . मेरे उक्त कथन के समर्थन में केवल परम्परागत श्रुति ही नहीं है बल्कि अधिक से अधिक पुराने ग्रन्थों का आधार भी है। जब श्वेताम्बर और स्थानकवासी समाज के सामने ऐसे ऐतिहासिक आधार हों और परम्परा भी हो तथा सब इसमें एकमत हों तब वे एक ऐसी नई निराधार बात को मान कर उसमें भाग लेकर इतिहास तथा परम्परा के मन्तव्य पर हरताल कैसे फेर सकते हैं ? इसलिए मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि आपके पास पुराने से पुराने प्रमाण क्या हैं जिनमें भगवान् महावीरने विपुलाचल पर श्रावण कृष्ण प्रतिपद् को प्रथम उपदेश देने की बात कही गई हो। जहाँ तक मैं जानता हूँ दिगम्बर समाज में भी उक्त स्थान पर उक्त तिथि को प्रथम उपदेश दिये जानेको परम्परा और जयन्ती महोत्सव की परम्परा बिलकुल नई है और निराधार भी। ___ फिर भी दिगम्बर समाज अपना निर्णय करने में स्वतन्त्र है, किंतु श्वेताम्बर समाज और स्थानकवासी समाज तो अपनी पुरानी सप्रमाण परम्परा को तब तक छोड नहीं सकते जब तक उन्हें मालूम न हो कि उससे भी अधिक पुराना और अधिक प्रमाणभूत आधार विद्यमान है।
__ यदि आपके पास अपने विचार के समर्थक पुराने प्रमाण हो तो उन्हें शीघ्रातिशीघ्र प्रसिद्ध करना चाहिएं जिससे दूसरे लोग कुछ सोच भी सकें। मेरे प्रस्तुत विचारका खुलासा आप करें या न करें तो भी मेरा यह पत्र आप अगले अनेकान्त के अङ्क में कृपया प्रकाशित कर दें। जिससे हर एक विचारवान को इस बारे में सोचने का, खोज करने का, कहने तथा निर्णय करने का यथेष्ट अवसर मिल सके।
___ आपको मालूम ही होगा कि जहाँ जहाँ संभव हो वह। सभी जगह मैं सभी फिरकों के एल जगह मिलने का पक्षपाती हूँ। इसी कारण कलकत्ता जैसे विशाल शहर में और विशाल जैन वसती वाले स्थान में सभी फिरकेवाले हम सब एक जगह मिल कर पर्व विशेष मनाते हैं। परंतु हमने यह पर्व ऐसा चुना है जिसमें किसी फिरके का मतभेद नहीं । यह पर्व है चैत्र शुक्ल त्रयोदशी–महावीरका जन्मदिवस। यदी ऐसा ही महावीर के प्रथम उपदेशका स्थान और दिन सभी फिरकों में निर्विवाद रूपसे मान्य हो तब तो उस स्थान पर उस दिन को नये जयन्ती महोत्सव की योजना का विचार संगत हो सकता है पर जहँ। मूल में ही भेद
और विरोध है वहाँ सभी फिरकों का सम्मिलित रूप से भाग लेना कैसे सोचा गया यह मेरी समझ में नहीं आता ? यह सूझ तो मुझे जैन फिरकों में एक नया विवादस्थान पैदा करानेवाली दिखती है।
भवदीय बा. बहादुरसिंहजी सिंधी. कलकत्ता.
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