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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषकरंड का 'लम' और म, म. डॉ. आर. शामशास्त्री याक : श्रीयुत भा. . कुलकर्णी, बी. ए. [ राजवाडे सं. मंडल, धुलिया, खानदेश.] - श्री जैन सत्य प्रकाश' कमांक ७१ में ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीन जैन वाङ्मय का महत्त्व और उसके संशोधनको आवश्याकता' इस शीर्षकसे मैंने एक लेख लिखकर, मैसोरके ख्यातनाम विद्वान म० म. डॉ. शामशास्त्री साहेबने जो वेदांग ज्योतिषका जैन ज्योतिषकी सहायतासे अभूतपूर्व संशोधन किया है, उसमें 'ज्योतिषकरंडके एक श्लोकके अर्थमें विसंगति हो गई है ऐसा दिखाकर उसपर संभवतः कोई अन्य विद्वान कुछ प्रकाश प्रदान करेंगे, ऐसी आशा प्रकट की थी। किन्तु मैंने देखा कि इस विषयकी ओर, कोई महानुभाव ध्यान देना नहीं चाहते, अतः स्वयं ही तत्संबंधी जैन ग्रंथ देखना चाहा। और सद्भाग्यसे उन दिनोंमें पू. आचार्य विजयअमृतमूरि तथा पू. मु. धुरंधरविजयजीका कुछ सहवास मुझे प्राप्त हुआ, जिनके प्रेत्साहन और सहायतासे वह समस्या हल हुई इतना ही नहीं, किन्तु और ऐतिहासिक दृष्टि से जैन ज्यो तेषके वैशिष्टयका अभ्यास करने की सुलभता प्रतीत हुई । उसके फलस्वरूप 'जैन ज्योतिषका ऐतिहासिक महत्त्व' शीर्षक लेख यथाव. काश विद्वानोंके पर्यालोचनके लिये ' श्री जैन सत्य प्रकाश में प्रकट करनेकी उम्मीद है। महां तो सिर्फ डॉ. शामशास्त्रीजीने ज्योतिषकरंडके श्लोक २८८ का अर्थ लगानेमें जो विसगंति की है वह स्पष्ट करता हूं। लग्गं च दक्षिणायण विसुवेसु वि अस्स उत्तरं अयणे। लग्गं साई विसुवेसु पंचसु वि दक्षिणं भयणे ॥२८८॥ इसमें दक्षिणायन विषुव याने शरदसंपात और उत्तरायण विषा याने वसंतसंपात दिनके लग्न बताये गये हैं । आचार्य मलयगिरिजीने अश्विनी और स्वाति इन दो उपयुक्त छानोंसे क्रमशः शरद और वसंतका संबंत्र बताया है। किन्तु डॉ. शामशास्त्रीजोने मलयगिरिजीको इस टोकासे बिलकुल विरुद्ध अश्विनी और स्वातिका संबंध वसंत और शरद संपातसे वनित किया है (वेदांग ज्योतिष पृ. ३० अंग्रेजी विभाग)। प्रत्यक्ष ज्योतिषकरंड देखने पर यह संबंध यथार्थ नहीं है, ऐसा स्पष्ट होता है । शामशास्त्रीजीने लग्नसे उस दिनका पहला नक्षत्र, जो कि पूर्व क्षितिज पर उदित होता है वह याने सूर्यनक्षत्र समझ लिया है। लेकिन इस पधके पूर्वका पद्य स्पष्टतया संपातदिनोंके सूर्यनक्षत्र इस प्रकार बताता है इपिखण अयणे सूरो पंचविसुवाणि वासुदेवेण । जोपर उत्तरेणवि आइच्यो भास देवेण ॥ २८७ ॥ इसमें शरदसंपातका सूर्यनक्षत्र वायुदेवतात्मक याने स्वाति, और वसंतसंपातका For Private And Personal Use Only
SR No.521596
Book TitleJain_Satyaprakash 1943 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1943
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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