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कुछ शब्दों शब्दों पर विचार
लेखक:- श्रीमान् मूलराजजी जैन, M. A., LL. B.
[ प्रिन्सीपाल - श्री आत्मानंद जैन कालेज अंबाला सीटी ] • जैन साहित्य में संस्कृत प्राकृतके अनेक ऐसे अथवा व्युत्पति पर विचार करनेकी आवश्यकता है। विचार किया जावेगा |
१. अर्धमा० बुसिमं, बुसीमंत, बुसीमओ.
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इस शब्दका प्रयोग सूत्रकृताङ्ग और उत्तराध्ययनमें कई स्थलों पर हुआ है । जैसे - एस धम्मे बुसीमओ सूत्र० १, ८, १९, १, ११, १५, १,१५, ४. उत्तर० ५, १८ इत्यादि । टीकाकारोंने इसका अर्थ " वश्यवत्" किया है अर्थात् इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला, साधु, मुनि ।
यहां अर्थ तो सुसंगत है पर व्युत्पत्ति ठीक नहीं । यदि
या व्यवसिन् " अर्थ करें, तब भी यही आपत्ति आती है ।
शब्द मिलते हैं जिनके अर्थ
उनमें से तीन शब्द पर यहां
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" व्यवसायवत् ”
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" बुसीमंत" - का संस्कृत रूप बृसीमत् " है । बृसी शब्द श्रौतसूत्रोंमें निलता है, इसका अर्थ है कुशा आदिका बना हुआ ब्रह्मचारियोंका आसन । ' बृसीमत् ' का अर्थ हुआ ब्रह्मचारी, मुनि, साधु | सेठ हरगोविन्ददासने अपने ' पाइयसदमहण्णवो' में यही व्युत्पत्ति दी है ।
टीकाकारोंके वश्यवत्, व्यवसिन् आदि अर्थसे सिद्ध होता है कि जैन साधुओंमें वैदिक साहित्यके पठनपाठनकी परिपाटी नहीं थी । इसी लिये जैन भंडारोंसे संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र आदि ग्रन्थ नहीं मिले हैं। बृसी शब्दका प्रयोग प्राचीन संस्कृत में पाया जाता है । अर्वाचीन संस्कृत में नहीं मिलता । २. जैन माहा० सग
इसका मूल 'सप्त'
संग्रहणी आदि ग्रन्थोंमें जहां संख्याओंका अधिक काम पड़ता है, सातके लिये नियमित 'सत्त' के अतिरिक्त ' सग' शब्द भी आता है । यह शब्द चन्द्र, नेत्र, गुण, गति आदिकी भांति कविसमय नहीं है । ही है, परंतु इग, दुग, तिगकी समानतासे सग बन गया है । लगने से सत्तग होना चाहिये था जो लाघवके कारण सग विधिमार्गप्रपा ( बंबई, सं० १९९७) पृ० २८ पर इग, दुग, तिग, पणग, छग, सत्ता सत्तड सग, दसग रूप मिलते हैं । चारके लिये चउ, चउक्क ही मिले
6 " क प्रत्यय
,
बन गया ।