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અંક ૯]
નામ ઓર મૂતિ દોને મંજુર હોને ચાહિએ
[ ર૭૯)
इसका उद्देश मूर्ति पूजा नहीं है किंतु मूर्तिमानकी ही पूजाका है, मूर्ति तो मात्र जरिया है अथवा मूर्ति और मूर्तिमानका अभेद होनेसे मूर्तिपूजा कहो तो भी हर्जा नहीं। तीसरी जिज्ञासाका उत्तर यही है कि समवसरणस्थ परमात्माके सामने जो पुष्पवृष्टि होती है उसे भी आप प्रभुका अपमान ही समझते होंगे। या उसमें पुत्र समान जीवोंकी हिंसा समजते होंगे ! क्योंकि पुष्पवृष्टि आदि समयमें अनेको वाय्यादि जीवकी हानि होनेका संभव है। पस स्थावर जीवोंको मारकर उन्हीं पर चढानेवाले' ऐसा लिखकर तो झूठकी हद की है। दिखलावे तो सही किस प्रस जीवको मारकर उन्हीं पर चढाया गया। वास्तवमें जब ऐसा है नहीं तो ऐसी गप्पे मारनेसे अपना उल्लु सीधा नहीं हो सकता।
'भरतेश्वर आदि मूर्तिको नहीं माननेवाले थे' ऐसा कहना प्रमाणहीन है, क्योंकि आपके पास निषेधका कोई प्रमाण नहीं और हमारे पास तो आवश्यकनियुक्ति वगैरह प्रमाण हैं जो परिशिष्टमें दिये ही हैं । 'जिसमें कि लम्बे समय तक आत्मा निवास कर चुकी है, कोई मूल्य नहीं तब मूर्ति कि जिससे जीवका कोई तालुक नहीं क्यों महत्त्व दिया जाता है ? ' ऐसा आपने लिखा है, यह बराबर नहीं है, क्योंकि जिसमें जीव निवास करे वो ही मूल्यवान है अन्य नहीं ऐसा कोई नियम नहीं है, किन्तु जिसके साथ जीवकी अभिन्नता है उसकी महत्ता है, यह बात आप भी स्वीकारते है, अन्यथा नामकी भी महत्ता उड जायगी। एवं च जिस तरह आज उच्चरित नामके साथ उनका संबंध न होने पर भी उस नामकी महत्ता स्वीकारते हैं, उसी तरह मूर्ति में भी मानना चाहिए, अगर मर्तिमें नहीं मानो तो किसी तरह आजकलके उच्चरित नाम कभी मान्य नहीं हो सकते । 'नाम लेते है भाव स्वरूप (अभेद् ) अनन्त चारित्रवान् प्रभुका' हां बराबर, प्रभुका नहीं, किन्तु उनके नामरूपी जड शब्दपुद्गलोंका, कि जो आपके मत अनुसार अचेतन होनेसे कुछ कर नहीं सकते, भाव प्रभु तो अभी हैं ही नहीं और शब्द तो अभी हैं, मगर उसके साथ उनका कोई संबंध नहीं, अतः स्वयं जड ऐसा क्या कर सकता है ? यदि प्रभुका उस जडके साथ संबंध न होने पर भी संबंध हो जाय तो मूर्ति के साथ संबंध मानने में क्या आपत्ति है ? एकान्त दृष्टिको छोडकर जिस तरह नामके साथ इसको अभिन्नता है, और कलेवरके साथ जैसो अभिन्नता है, उसी तरह मूर्तिके साथ और उनके निर्वाण आदि स्थलोंके साथ भी उनकी अभिन्नता है, इसीसे इन सबको मानने में ही अधिक लाभ है । इसी लिये 'नाम और मूर्ति दोनो मंजूर होनेसे हमारा कार्य डबल सिद्ध हो गया ऐसा व रिजी कहते है इसमें क्या अनुपपत्ति है ?।
(क्रमशः)
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