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गुरुपरंपराकी श्रृंखलाबद्ध स्तुति है, अन्यथा इस वर्णनके ही पूर्वमें गाथा ५०-५१ में श्रीउमास्वातिवाचकजीकी, गाथा ५२ से ५८ तक श्रीहरिभद्रसूरिजी की और गाथा ६०में श्रीशीलाङ्काचार्यजीकी स्तुति है जोकि-(उमास्वाति उच्चशाखीय थे और जिनका इतिहासज्ञोंने विक्रमकी पहिली शताब्दि समय निश्चित किया है, याकिनीसुनू श्री हरिभद्रसूरि विद्याधर कुलके थे और समय इतिहासज्ञोंने सं. ७५७ से ८२७ तक निश्चित किया है एवं निवृत्तिकुलीन श्रीशीलांकाचार्यकी सं. ९२५ से ९३३ तककी कृतियां उपलब्ध है)-न होतीं। अतः श्री शीलाङ्काचार्य से पीछे और श्री वर्धमानसूरिसे पहिले उक्त तीनों पट्टधर आचार्य हुए मान लेने में कोई ऐतिहासिक विरोध नहि है।
(६) प्रन्थकारका समय-ग्रन्थकारके समयके विषयमें महावीरचरियको प्रशस्तिमें सं. ११४१ [ या ११३९ १ ] का स्पष्ट वर्णन है और वे उनके श्री मुनिचन्द्रसरि [जिनका स्वर्गवास सं. ११७८में हुआ] गुरुभाई थे यह भी इन प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है । कहते हैं कि श्री वीरचन्द्रसूरिके शिष्य श्री देवसूरि रचित सं. १९६२के नीवानुशासककुलकमें इन्हीं नेमिचन्द्रसरिके उपदेशसे उसे रचनेका उल्लेख है [पी. ५२२] । यदि यह बात सत्य हो तो सं. ११६२ तक श्री मेमिचन्द्रसूरिजी विद्यमान थे यह सिद्ध होता है। यदि इनकी अन्य कृतियोंमें संवताका कुछ उल्लेख हो तो प्रकट करना चाहिए ।
षडशीति वृत्तिकी प्रशस्तिसे केवल इतना ज्ञात होता है कि बडगच्छीय प्रभु श्रीमानदेव [ सूरि! ] के शिष्य उपाध्याय श्री जिनदेवके शिष्य श्री हरिभद्रसरिने सं. ११७२में यह रची। बडगच्छ उस समयमें प्रसिद्ध गच्छ था।
आख्यानमणिकोशवृत्तिकी प्रशस्तिमें श्री देवमूरि, श्री अजितमूरि, श्री आनंदसरि कौनसे हुए ? कुछ नहीं कहा जा सकता। जिन दो श्री देवसरियोंका वर्णन श्री देवेन्द्रसाधुकी प्रशस्तिमें है उन्हीमेंसे कोईसे एक हों तो भी आचर्य नहीं है । एवं शेष श्रीअजितदेवसरि और श्रीआनन्दसूरि यदि उक्त देवेन्द्रसाधुके समकालीन हों तो भी कुछ कहा नहीं जा सकता । कारण कि श्रीमुनिसुन्दगणिको गुर्वावलीके श्लोक ७१में उल्लेख है कि श्री मुनिचन्द्रसूरिके श्रीआनन्दसूरि प्रमुख बहुतसे गुरुभाई थे।
___ यदि कोई विद्वान् श्रीनेमिचंद्रसूरि(देवेन्द्रसाधु)जीकी अन्यान्य प्रशस्तियोको तथा इस सम्बन्धकी ऐतिहासिक सामग्रीको प्रकट करनेकी कृपा करें अथवा मेरे पास भेज देनेकी कृपा करें तो और भी प्रकाश पड सकता है। पैसी परिस्थिति होते हुए भी ऊपर मैंन जो कुछ उद्धरण और विवेचन किया है उससे इस नतीजे पर पहुंचना पडता है कि:
बडगच्छ एक सुप्रसिद्ध गच्छ था । यदि, श्रीमुनिसुंदरगणि(सरि पीछे हुए) आदिके पास कोई बडगच्छकी विश्वसनीय पट्टावली या गुरुपरम्पराका इतिहास उपलब्ध था और उन्होंने ३४वे पट्टधर श्रीउद्योतनसूरिजीने सं.
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