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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[र्ष ७
श्रीउद्योतनसूर हुए जो की वडगच्छीय थे । इससे प्रमाणित है कि पूर्वके पट्टधर श्री नेमिचंद्रसूरि और उनके पूर्वके पट्टधर श्रीदेवसूरिजी वडगच्छ में ही हुए, इसमें शंका करनेकी कुछ भी गुंजाइश नहीं है ।
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(३) गुरुपरम्परा – रत्नचूडकी प्रशस्तिके अनुसार पहले श्रीदेवसूरि नामक कोई आचार्य हुए । उनके गच्छ में उनके पीछे श्रीनेमिचंद्रसूरि हुए और उनके पीछे श्रीउद्योतनसूरि हुए, यहांतक तो गुरुपरम्परा है क्योंकी इनके साथ में (तयणु - तदनु) शब्द प्रयुक्त है, परन्तु इनके पीछे श्रीयशोदेवत्ररि श्रीप्रधुरि श्रीमान देवसूरि और विख्यात श्रीदेवसूरि (दुसरे) का जो वर्णन है उसमें किसी प्रकारका संकेत न होने से ये सब श्रीउद्योतनसूरि के समकालीन और उनके ही परिवार में हुए थे यह मानना युक्तियुक्त है, क्योंकि महावीर चरियकी प्रशस्ति में 'जंमि य गच्छे आसी' से भी यही ध्वनि निकलती है बल्कि उत्तराध्ययन वृत्तिकी प्रशस्ति में श्री प्रद्युम्नसूर और श्रीमान देवसू रिसे प्रविराजित - विराजमान जो बतलाए हैं यह संकेत उन्हीं पहिले श्रीउद्योतनसूरिके लिए है जो अपूर्ण प्रशस्तिके कारण इसमें नहीं आये ।
(४) ग्रन्थकारकी गुरुपरम्परा आदि - ग्रन्थकार श्रीनेमिचंद्रसूरि उपा ध्याय श्रीआम्रदेव के शिष्य थे और वे श्रीउद्योतनसूरिके शिष्य थे और ये सब वडगच्छीय थे इसमें कुछ भी संदेहास्पद नहीं है । कोई भी पाठक यह समझने की भूल न करें की प्रथमके श्रीउद्योतनसूरि और ग्रन्थकर्ताके प्रगुरु दोनों एक ही थे, कारण कि रत्नचूडकथाकी प्रशस्तिका 'तह चेव तमि गच्छे' यह पद दोनोंको भिन्न बतानेका खास उल्लेख है, अन्यथा यहां पर इस पदके बजाय 'उन्हीं उद्योतनसूरिके शिष्य' इस प्रकारका उल्लेख होना चाहिये था जैसाकि समयनिर्णय से भी यही पता चलता है ।
(५) समय निर्णय - इन प्रशस्तियों से यह पता नहीं चलता कि पूर्वके श्री देवसूरि, श्री नेमिचन्द्रसूरि और श्री उद्योतनसूरि जो कि क्रमशः एक दूसरेके उत्तराधिकारी हुए तो वे ग्रन्थकार से कितने काल पूर्वमें हुए ? कारण कि ग्रन्थकारने अपने समय तक उनके कौन २ पट्टधर हुए ? यह वर्णन नहीं किया जिससे कि कुछ अनुमान किया जा सकता। इसके लिए विधिमार्गीय प्रसिद्ध श्री जिनदत्तसूरिनीरचित गणधर सार्द्धशतक गाथा ६१ से ६३ तक और सुगुरुपारतत्र गाथा ७-८ से प्रकट है कि इन देवसूरि और उद्योतनafra पीछे श्री वर्धमानसूरि प्रसिद्ध नवांग वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिजी के प्रगुरु हुए जोकि पाटनके दुर्लभराज ( राज्य सं. १०६६ से १०७८ तक ) के समय में विद्यमान थे यह इतिहास प्रसिद्ध बात है । अतः ग्यारहवीं शताब्दि के उत्तरार्द्धसे पहिले हुए सिद्ध होते हैं । किन्तु यह ध्यान में रहेना चाहिए कि उक्त गणधर सार्द्धशतकर्मे गणधरों या युगप्रवरोंकी स्तुति है न कि किसी
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