________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
[ ३९२ ]
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
जसदेवसूरिनामो रवि व्व तव तेयसा जुत्तो ॥ ९ ॥
xxx पजुन्नरिवरो ॥ १० ॥
x x x रिवरो माणदेवो त्ति ।। ११ ॥
xxx सिरिदेवसूरिनामो समत्थलोगंमि विक्खाओ ॥ १३ ॥ तहचैव तंमि गच्छे उज्जोयणसूरिणो पवरसीसी । जाओ 'गुणरयणनिही उवज्झायो अंबदेवोति ॥ १४ ॥ कोमुइयमयंकमंडल सौमसरीरस्स संतचित्तस्स । वरमरणो धम्मसहोदरेण मुणिचन्दसरिस्स ॥ १५ ॥ सुयदे विपसा येणं सीसावयवेण तस्स तणुमइणा । पसा कहिया रतिया उ सूरिणा णेमिचन्देण ॥ १६ ॥ पाठान्तर - गणिणा देविदेणं सीसावयवेण तस्स तणुमणा । पला कहिया कहिया अक्खरबंधेण संखित्ता ॥
X
X
पज्जुनसूरिणो धम्मनतुपणं तु सुयणसारेण । गणिणा जसदेवेण उद्धरिया पढमपई ॥ २३ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
X
For Private And Personal Use Only
[ वर्ष ७
———
(इ) पृ. २१७-२१८, उत्तराध्ययन सूत्र पर इनकी रचित सुखबोधा नामक वृत्तिकी प्रशस्तिका कुछ भाग है उसमें केवल चंद्रकुलका वर्णन आया है ( ३१ श्लोक तक ) । इसके आगेका वर्णन जिस पत्र पर है वह इस प्रतिका नहीं है (इस प्रकारका नोट इस सूची में दिया हुआ है ) इस लिए इसकी इससे (सं. १३१० से) प्राचीन प्रति कहीं पर उपलब्ध हो तो इसकी पूरी प्रशस्ति प्रकट करनेका कोई विद्वान् कष्ट करेंगे। यहांपर वह अधूरी प्रशस्ति अन्तिम श्लोकको ('अनावश्यक होनेसे ) छोड़कर उद्धृत करता हूँ :सुनिर्मल गुणैर्नित्यं प्रशांतै: श्रुतशालिभि: । प्रद्युम्न - मानदेवादि रिभि: प्रविराजितः ॥ ४ ॥ विश्रुतस्य महीपीठे बृहद्गच्छस्य मण्डनं । श्रीमान् बिहारुकप्रष्ठः सूरिरुद्योतनाभिधः ॥ ५ ॥ तस्य शिष्योऽऽम्रदेवोऽभूदुपाध्यायः सतां मतः । यत्रैकांतगुणापूर्ण दोषैर्लेभे पदं न तु ॥ ६ ॥ श्रीनेमिचंद्रसूरिरुभ्धृतवान् वृत्तिकां तद्विनेय : । सोदर्यश्रीमन्मुनिचंद्र (चार्य ) वचनेन ॥ ७ ॥
(ई) आख्यानमणिकोशकी प्रशंस्ति पीटर्सन भा. ३ पृ. ७८में है, किन्तु उसमें केवल वह देवेन्द्रसाधुरचित होनेके सिवाय और कोई उल्लेख नहीं है। [२] सं. ११७२की रचित आगामिकवस्तुविचारसार (षडशीति) की वृतिको प्रशस्ति में लिखा है