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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तक्षशिलाका विध्वंस लेखक- श्रीमान् डा. बनारसीदासजी जैन, एम. ए., पीएच. डी., लाहोर तक्षशिला भारतीय संस्कृतिका एक अति प्राचीन तथा प्रसिद्ध केन्द्र था, जो आज शताब्दियोंसे उजड़ा पड़ा है। इसके अवशेष पंजाबमें रावलपिंडी नगरसे २० मील उत्तरकी ओर टेक्सिला रेलवे स्टेशनके पास विद्यमान हैं । इसकी खुदाईका काम कुछ वर्ष पूर्व सर' जॉन मॉर्शल 'की देखरेखमें आरम्भ हुआ था । इसके उल्लेख भारतके प्रायः सभी ब्राह्मण, जैन तथा बौद्ध - साहित्योंमें प्राप्त होते हैं । ब्राह्मण-साहित्य में इसका सम्बन्ध जनमेजयसे है, जिसने नागयज्ञ करके तक्षकनागको पराजित किया था । ' बौद्ध - साहित्य में तक्षशिला एक विशाल विश्वविद्यालयके रूपमें आती है । यहाँ अनेक बौद्ध विहार हैं, जिनमें बड़े बड़े विद्वान् भिक्षु रहा करते थे । विद्यादान ही इनके जीवनका परम लक्ष्य था, और इनसे विद्या प्राप्त करनेके लिए विद्याप्रेमी दूरस्थ देशों से आते थे । इस बात की पुष्टिके लिए चीनी-यूनानी आदि विदेशी दूतों, यात्रियों तथा लेखकोंके कथनका आश्रय लेना पड़ता है २ जैन - साहित्य में तक्षशिलाका वर्णन आदि तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवके काल तक पहुंचता है । दीक्षा ग्रहण करते समय भगवान् ऋषभदेवने अपना सारा राज्य अपने पुत्रोंमें बांट दिया । भरतको अयोध्याका राज्य मिला और बाहुबलीको तक्षशिलाका । फिर जब भरत दिग्विजयके लिए निकला, तो उसके भाई बाहुबलीने उसका विरोध किया । घोर युद्ध हुआ, परन्तु ऋषभदेवके उपदेश से बाहुबलीने भरतकी अधीनताको अङ्गीकार कर लिया । एक बार विहार करते हुए ऋषभदेव तक्षशिला नगरीके निकट आ पहुंचे । बाहुबलीको सूचना मिली । दूसरे दिन प्रातः वह भगवद्दर्शनके लिए आया तो उद्यानको खाली पाया । भगवान् कहीं अन्यत्र चले गये थे । बाहुबलीको असीम खेद हुआ । इसके उपलक्ष्य में बाहुबलीने भगवान् आदिनाथके पदबिम्ब बनवाये | १ महाभारत, लालोर १९९७ आदिपर्व अ० ३, श्लो० २०, १७२. २. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रथम पर्व, भावनगर १९९२ सर्ग ३, श्लो० १७; श्री विजयानंदसूरिः जैन तत्त्वादर्श, उतरार्द्ध, अम्बाला १९९३, पृ. ३७६ । ३ त्रिषष्टि० पर्व १, सर्ग ५ पउमचरिय, भावनगर, पृ० १६, श्लो० ३८, ४०, ४१. ४ त्रिषष्टि० पर्व १, सर्ग, ३३५-८५ । महेंद्रप्रभसूरि : विधिपक्षगच्छीय पञ्चप्रतिक्रमण बम्बई, पृ० २५४, श्लो० ५६-८ यही वर्णन हरिभद्रसूरिकृत आवश्यकनिर्युक्ति; तथा दर्शनरत्नाकरमें भी आता है । For Private And Personal Use Only
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
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