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बावीसं तित्थयरा, सामाइयमंजय उवदिसति । ओवट्टावणयं पुण, वयंति उसभी य वीरो य || आ० १२४६ ॥ मृ० ४६ ॥ कतारे दुभिक्खे, आयंके वा महई समुत्पन्ने ।
મૂલાચાર્
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जं पालिये न भग्गे, तं जाणणु पाळणा सुद्धं ॥ भा० २५० ॥ मृ० १४५ ॥ सायसगोमऽद्धं विनेयसया हव्येति पक्खिम्मि | आ० १५३० ॥ असयं देवसिय कल पक्खियं च तिणि सयां ॥ मृ० १६० ।। घोडा खेमे कुड़े माले असवरि बहुनियले ॥ लवंतर* थणउद्धि मंजयखलिणे य वायमकविट्टे ॥ ० १५४३ ॥ ॥ मृ० १७१ ॥
(१) आवश्यक निर्युक्ति गाथा १०६६ व मलाचार दाहोपशम, तृष्णा ( तृषा ) छेद व मलशोधन रूप तीन वह ठीक है
माना
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आवश्यकाधिकार यह आवश्यक नियुक्तिका छोटा अवतरण ही है । अवतरणकारने कतिपय स्थानोंमें जो संस्कार दिया है वह वडा भद्दा लगता है । इतना ही नहीं किन्तु उसमें दिगम्बरीय मान्यता से भी विसंवाद पाया जाता है । जैसा कि:---
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घडा. गा. ६२ में लक्षणसे द्रव्य तीर्थ
(२) बादमें आ० नि० ० ६०६९ में तीर्थंकरोंके द्वारा बताए हुए दर्शन ज्ञान व चारित्रसे लक्षित (प्रवचन) को भाव तीर्थ माना है। द्वादशांगी और श्री श्रमण संघ ये तीर्थरूप होनेसे उक्त अर्थयोजना ठीक है। मगर श्रीमद् वरकजी श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामीके उस आशयको नहीं समज सके, अत: उन्होंने मृ० प० ० ६३ में लिख दिया की ज्ञान, दर्शन व चारित्र जिनेश्वर नियुक्त हैं अतएव वे भावतीर्थ है। यहां श्रीमद् हेकरजीने जिनेश्वर भगवानको तीर्थकर न मानकर तीर्थ हो मान लिया। क्या तीर्थकर भगवान् तीर्थ हैं ? या तीर्थकर्त्ता ?
(२) मूल आवश्यक के चतुर्विंशति स्तव सूत्र - १के आधार पर मृ.० गा० ४२का जो पौना भाग बनाया है, सो ठोक है। मगर आ० च० ० ६के आधार पर मृ० प० गा० ४२का जो चौथा चरण बना लिया उसमें गडबडाध्याय बन गया है । आवश्यक में "उत्तम विशेषण तीर्थकर के लिये बताया है और तीर्थकर उत्तम क्यों हैं उसकी जांच भी आ० नि० गा० १०९३ में की है । जब भूलाचार में बोधिसे "उत्तम" विशेषण जोड दिया है। नकल करने के जरिए यह ठीक होगा, किन्तु गाथा ६८ में तो उत्तम शब्दसे आवश्यकनियुक्ति के अनुसार तीर्थकरके ही गुण गाये हैं । सारांश, यहां * लंवुत्तर दोष साधु के वस्त्र होने को सिद्ध करता है । थणउद्धि दोष से भी सोपकरण साध्वीका होना निर्विवाद हो जाता है ।