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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ २१८ ] www.kobatirth.org શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ जालोरे चौमासुं रह्या, हुई सबली जगीस रे । सुणी श्रावक दीक्षा लेय, जणां तिहां एकवीस रे ।। ११ ।। इस अवतरण से यह बात साफ प्रकट है कि जैसाकि ऊपर बतलाया जाचुका है कि हिन्दी सं. १६७३का चौमासा उपाध्याय श्रीभानुचंद्रजीने जालोर में किया था तो वे पहिले मालपुरे और मारवाड होकथ फिर जालोर में आए थे । परिणामतः वे मालपुरे में हिन्दी सं. १६७२-७३में भी आए, जैसाकि मुनिराज श्रीज्ञानविजयजी महाराजके प्रकट किए हुए लेखोंसे भी सिद्ध है, किंतु उन लेखोंके विवेचनमें कुछ स्खलनाएं हो गई हैं अतः मैं यहां पर श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के मंदिर के प्रत्येक लेखसे क्या विशेष प्रकट होता है ? उसका संक्षिप्त विवरण देता हूं: ● Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) पहिला लेख मूल गंभारेकी कुंभी के ऊपर एक श्याम मकरानेके चार फुट लंबे और एक बालिश्त चौडे पत्थर में खुदा हुआ है जोकि श्री विजय सेनसूरिजी की विद्यमानताका, मंदिर बनते समय हो खुदवाकर लगवा दिया गया प्रतीत होता है और उसमें (हिन्दी गणनासे) सं. १६७२ लिखा है अतः 'पंजाब जैनधर्म' विषयक लेखके संशोधन ('श्री जैन सत्य प्रकाश' क्रमांक ६२ पृष्ठ ८६) में कहा गया है कि उपाध्याय श्रीमानुचन्द्रजीका भी चौमासा जहागीरके साथमें था । इस लेखसे प्रकट है कि श्रीसिद्धिचंद्रजी तो अवश्य उस पहिलेसे ही मालपुरेमें आ गए थे और उन्होंने मंदिर के वास्ते भूमि ग्रहण करके उक्त मंदिर बनवाना प्रारंभ करवा दिया था और यह निश्चित कर लिया गया था कि इसमें मूलनायक श्रीचंद्राप्रभुजी विराजमान किए जायेंगे । श्री सिद्धिचंद्रजीको सम्राट अकबर ने 'खुशफहम' की उपाधि तो दी थी ही साथमें दूसरी भी कोई उपाधि प्राप्त हो चुकी थी । प्रशस्तिलेखक श्री लालचन्द्र गणि संभवतः उपाध्याय श्री शांतिचंद्रजीके जो एक इस नामके शिष्य वही हो । (देखो - 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' टिप्पणी ४९४ में उद्धृत शब्दरूप वाक्यकी प्रशस्ति) । दूसरी उपाधी जहांगीरने उक्त परीक्षा में अपने रहने के कारण प्रसन्न होकर 'नादिरेजमा' की दी थी प्रशस्ति ) देखा 'आत्मानंद' वर्ष १ अंक ८ पृ० २२-२३ अकबर पर जैनाचार्यों का प्रभाव शीर्षक लेखान्तर्गत । (२) दूसरा लेख सं. १६७८ मार्गशीर्ष सुदि २ सोमवारका इस मंदिर के मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभूजीके परिकरका है, जिसका आवश्यक अंश इस प्रकार है"श्री चन्द्रप्रभमूर्तिमुख्य परिकरः कारितः प्रतिष्ठापितश्च ॥ श्रीरस्तु ॥ पं० श्रीजय सागरैः ॥ [वर्ष 9 For Private And Personal Use Only साधुधर्म में निश्चल (लेख लेखन पद्धति' को में 'मुगल सम्राट्
SR No.521566
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size22 MB
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