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સશે ધન
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उल्लेखांके साथ यह भी लिखा है कि मुकर्रबखां जहांगीरका फर्मान लेकर गुजरात जा रहा था तो रास्तमें जालोरमें नब पहुचां तो उपाध्याय श्री भानुचंद्रजी उससे जाकर मिले और श्री सिद्धिचंजीका उसके साथ अहमदाबाद भेजा। अहमदाबाद पहुंचनेपर वे उपाध्याय श्री सामविजयजीसे मिले। सेाम विजयजी सिद्धिचन्द्रजीसे इस प्रकार कहते हैं
“साबासी कोविद सिद्धिचंद्रनई, बिहुं ठामे धरी टेक । आप राखी कीधुं अजुआलु, मोटो एह विवेक ॥ ११७९ ।। एक दिन दुसमन प्रेरिओ राजा, सिद्धिचंद्र प्रति भासई । तरुणपणा तुझ दीसई, अधिका नहीं फकीराई वरासई ।। ११८० ॥ धरि दुनियां हय गय तुझ. आपुं, आपुं मुलक बहुत । निसुणी वात अवनीपतिकेरी, चिंतई रहई किम सूत ।। ११८१ ।। कहई तव सिद्धिचंद्र विचारी, अवनीपति अवधारो। जे जेणई अंगीकृत की , ते न टलई किरतारो ॥ ११८२ ॥
-इत्यादिक वर्णनमें आगे लिखा है कि जब सिद्धिचंद्रजीने जहांगीरकी बात न मानी तो हाथी आदिके अनेक भय दिखलाए गए, परन्तु वे अपने व्रतसे चलित न हुए तो फिर पास बुलाकर शाबासी दी और सन्मानित किया और चुगलखोरोंको उचित दण्ड दिया । इस प्रकारसे एक बार तो सिद्धिचंद्रजीने वहां टेक रखी थी। इससे स्पष्ट है कि उक्त समयके पहिले उनकी परीक्षा हो चुकी थी, जोकी हिन्दी स. १६७०में ही हुई प्रमाणित होती है, क्योंकि उसके पहिले मानने में २३ वर्षके पश्चात् दो चौमासे गुजरातमें भी तो किये हैं और पीछे माननेमें जहांगीर आगरेसे अजमेर चला गया था । अतः इस रासमें इस घटनाका सं. १६७० लिखना सत्य है। मुंशी देवीप्रसादके 'जहांगीरनामा' पृ० २२९-२३१से जान पडता है कि हिंदी सं. १६७३ के प्रथम असोज के प्रारंभमें मुकर्रबखांको गुजरातकी सूबेदारी मिली और इस मासके अंतमें वह अहमदावादके लिए रवाना हो गया । अतः रासमें उपाध्यायजीसे मुलाकात होना सप्रमाण सिद्ध होता है । जालोरमें चौमासा करनेका उल्लेख 'श्रीहीरविजयमरिरास' में भी है, जोकि आगे दिया है ।
(२) 'श्रीहीरविजयसरिरास' पृ० १८४में उपाध्यायजी जहांगीरके पाससे कहां गए उसका वर्णन देते हुए लिखा है कि
" अनुकरमि आव्या मालपुरि गया, वीजामतीस्यु बाद रे। जस हुओ तिहां भाणचंदनि, कीधी एक प्रासाद रे ॥ ९ ॥ कनकमि कलस चढावीओ, करी बिच प्रतिष्ठ रे । पछि मारुआडिमां आविआ, हवी सोवन वृष्टि रे ॥ १० ॥
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