________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
म१४]
તત્વાર્થભાષ્ય ઓર અકલંક ने यह बात और भी स्पष्ट कर दी है। वे लिखते हैं " इत्येके इत्थमाचक्षतेऽन्ये त्वन्यथेति" अर्थात् 'इत्येके' का यही आशय है कि कोई लोग ऐसा कहते हैं, कोई बैसा-यानी कोई लोग काल को अलग द्रव्य मानते हैं, कोई नहीं । उक्त मूत्र का आशय यह तो कदापि नहीं कि उमास्वाति काल को अलग द्रव्य नहीं मानते । इस सूत्र में उमास्वाति ने कालद्रव्यसंबंधी दो मान्यताओं की सूचना मात्र की है । तथा उक्त सूत्र के भाष्य में जो " एके त्वाचार्याः " पद है, उसमें स्वयं उमास्वाति भी आ सकते हैं । 'एके त्वचार्याः' वाक्य से यह आशय कभी नहीं निकाला जा सकता कि उमास्वाति के मत से काल द्रव्य नहीं है । संक्षेप में, उक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि उमास्वाति केवल पांच ही द्रव्य स्वीकार नहीं करते । यदि उमास्वाति पांच हि द्रव्य मानते हैं, और सिद्धसेन इसका समर्थन करते हैं तो निम्न शंकायें उपस्थित होती हैं
(१) सिद्धसेन उमास्वाति की प्रशमरति के षड्द्रव्यवाले उल्लेख को क्यों उद्धृत करते हैं ?
(२) सिद्धसेन, काल को धर्मादि द्रव्यां की तरह पृथक् मानकर, उमास्वाति का पक्ष लेकर, यह क्यों कहते हैं कि 'कायत्व का प्रतिषेध करने के लिये ही सूत्रकार ने कालद्रव्य का कथन पहले नहीं किया ?'
(३) यदि उमास्वाति के मत से कालद्रव्य का वर्तनादि व्यापार धर्मादिपंचद्रव्यसाध्य है, और काल अलग नहीं, तो इस चर्चा के प्रसंग पर सिद्धसेन को काल का धर्मादिपंचद्रव्यसाध्यत्व स्वीकार कर लेना चाहिये था। उन्हें उमारवाति के लिये स्मृतिप्रमोष आदि शब्दों के कहने की क्या आवश्यकता थी ? तथा फिर कालश्चत्येके सूत्र के बिना भी उमास्वाति का काम चल सकता था।
(४) अन्त में 'कालश्च येके' सूत्र की टीका में, सिद्धसेन ने यह कहीं नहीं बताया कि उमास्वाति कालद्रव्य को अलग नहीं मानते, अथवा उसे जीवाजीव की पर्याय बताते हैं । सिद्धसेन ने इस सूत्र का अर्थ करते हुए यही कहा है कि-काल के संबंध में विद्वानों के दो मत हैं । एक नय की अपेका काल द्रव्य स्वतंत्र है, दूसरे की अपेक्षा नहीं।
सिद्धसेन के उक्त कथन के पूर्वापरविरोध को देखते हुए मानना पड़ेगा कि "वाचकमुख्यस्य पंचैव" वाला सिद्धसेन का उल्लेख भ्रममूलक है। यह उल्लेख उनका अंतिम उल्लेख नहीं है । कालद्रव्यसंबंधी अपने अन्तिम उल्लेखों में उन्होंने उमास्वाति के मतानुसार काल को छठा द्रव्य माना है, और सब से अन्त में कालश्चेत्येके सूत्र के भाष्य में भी उन्होंने यही स्पष्ट किया है कि कुछ आचार्य काल को मानते हैं, कुछ नहीं। एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पंचद्रव्याणि च भवन्तीति ।....अवस्थितानि च न हि कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति" इन
For Private And Personal Use Only