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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५ है (ऊ) आगे चलकर ' वर्त्तना परिणामः क्रिया आदि सूत्र की टीका में तो सिद्धसेन ने उमास्वाति के मत से कालद्रव्य को स्पष्ट मान लिया है। वे लिखते हैं-"जब कालद्रव्य धर्मादि से भिन्न है तो उसे अवश्य उपकारी होना चाहिये । और काल का अस्तित्व माना गया है, तो फिर उसका क्या उपकार है ? उसका उपकार है वर्तना, परिणाम आदि; यह वर्त्तना आदि काल का अविनाभूत लिंग है । तथा पहले जो सूत्रकार ने उसका कथन नहीं किया, वह केवल अस्तिकाय का प्रतिषेध करने के लिये नहीं किया"१ (ए) अब तो सिद्धसेन गणि मानों अधीर हो उठते हैं । वे शंका करते हैं " अब तो वर्त्तनादि रूप काल का उपकार भी कहा जा चुका, फिर भी 'कालद्रव्य है, यह बात न तो पहले कही गई और न अब ? तथा उपकारक के बिना उपकार संभव नहीं। जैसे स्थिति आदि का अधर्मादि उपकारक है, वैसे ही वर्तनादि का भी कोई उपकारक है । तो फिर क्या उमास्वाति का यह स्मृतिप्रमोष है कि उन्होंने पृथक् उपकार के आधारभूत कालद्रव्य को नहीं कहा? अथवा उमास्वाति वर्तनादि व्यापार को धर्माधर्मादि पंचद्रव्यसाध्य मानते हैं ? यह शंका होने पर कहते हैं ' कालश्चेत्येके । "२ याद सिद्धसेन गणि, “वाचकमुख्य के अनुसार पांच ही द्रव्य " मानते हैं तो उक्त तर्क-वितर्क कैसा ? (ऐ) अन्त में आकर " कालश्चेत्येके" सूत्र की टीका में सिद्धसेन स्पष्ट कहते हैं " कालश्च द्रव्यं षष्ठं भवति" । यहाँ काल द्रव्य को पृथक् बताने के लिये आगम का पूर्वोक्त प्रमाण दिया है और काल में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की सिद्धि की गई है । सिद्धसेन ने "कालश्चेत्येके" में 'एके' शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-" एकस्य नयस्य भेदलक्षणस्य प्रतिपत्तारः" तथा "आर्षे हि षष्टं कालद्रव्यमितरव्यविविक्तं दर्शयत्येकनयप्रवृत्तेः । न च जैने प्रवचने कश्चिदेको नयः समस्तं वस्तुस्वरूपं प्रतिपादयितुं प्रत्यल:"अर्थात् एक नय की अपेक्षा, काल दूसरे द्रव्यों से भिन्न द्रव्य है । जैन प्रवचन में किसी एक नय की अपेक्षा समस्त वस्तुस्वरूप का कथन नहीं किया जा सकता। आगे जाकर सिद्धसेन १ यदा तु पृथक कालद्रव्यं धर्मादिभ्यस्तदाप्यवश्यं सतोपकारिणा भवितव्यम् । संश्च कालोऽभिमतः स किमुपकार इति तस्य खलु वक्ष्यमाणस्वतत्त्वमूतः वर्तना परिणाम इत्यादिनाऽविनाभूतं लिंगमुपदश्यते । यच्च प्राङ् नोपान्यासि सूत्रकारेण कालस्तदस्तिकायत्वप्रतिषेधाय । २ तत्र कालस्यापि पूर्वमुपकारो वर्णित एव वर्तनादिगुणपर्यायलक्षणः, स च कालो द्रव्यमित्येवं न पूर्व नाधुना व्याख्यातः, न चोपकारकमन्तरेणोपकारः समस्ति शक्यं वक्तुं, वर्तनादिरुपकारः सोपकारकः स्थित्यादिवदुपकारत्वात् , तत् किमयं स्मृतिप्रमोषो युष्याकं येन विविक्तोपकाराधारः कालो द्रव्यं नोक्तः ? आहोस्विद् धर्मादिद्रव्यपंचकसाध्य एवायं वर्तनादिव्यापार इति विरचितप्रश्ने श्रोतरि सिद्धसाध्यतोद्विभावयिषाद्वारेण सूरिराह --" कालश्चेत्येके ''. For Private And Personal Use Only
SR No.521565
Book TitleJain_Satyaprakash 1940 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size27 MB
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