SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A' ४] તત્વાર્થભાષ્ય ર અકલંક उदाहरण के लिये जैसे सर्वार्थसिद्धि वृत्ति में नहीं उठता। जब कि प्रस्तुत भाष्य में 'कालश्चेत्येके' सूत्र होने के कारण, उमास्वाति की कालव्यसंबंधी मान्यता स्पष्ट नहीं होती, और इसीलिये अकलंक, हरिभद्र और सिद्धसेनगणि ने अपनी अपनी टीकाओं में इस चर्चा को उठाकर उसका स्पष्टीकरण किया है, तथा सर्वार्थसिद्धिमान्य दिगम्बरीय पाठ 'कालश्च ' ही है, अतः अकलंक ने उसी पाठ को दिया है। कदाचित् प्रस्तुत भाष्य को छोड़कर यदि किसी अन्य वृत्ति की कल्पना की भी जाय तो, वह वृत्ति श्वेताम्बरीय वृत्ति ही हो सकती है, उसीके संबंध में द्रव्यपंचत्व का प्रश्न उठ सकता है। क्योंकि श्वेताम्बर आगमों में ही कालविषयक दो उल्लेख आते हैं; दिगम्बर आचायों ने तो काल को स्पष्ट रूप से स्वतंत्र द्रव्य माना है। जिस शिलावाक्य के आधार पर ( समन्तभद्र के शिष्य ?) शिवकोटिकृत वृत्ति की कल्पना की गई है, वह शिलावाक्य शक सं० १३२० (वि० सं० १४५५ ) का है। आश्चर्य है कि जिस वृत्ति का पूज्यपाद आदि किसी दिगम्बर विद्वान ने उल्लेख नहीं किया, वह एकाएक १५ वीं शताब्दी में किसको मिल गई ! ४ भाष्य पं. जुगलकिशोरजी का वक्तव्य (क) कालोपसंख्यानमिति चेन्न वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ॥ ३६॥ स्यादेतकालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थोऽस्ति अतश्चारित यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं अतस्तस्योपसंख्यानं कर्त्तव्यमिति । तन्न, किं कारणं । वक्ष्यमाणलक्षणत्यात् (राजवार्तिक)-यहाँ भाष्य का वाच्य यदि प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य ही है तो कम से कम तीन प्रमाण तत्त्वार्थभाष्य से उद्धृत करके बतलाने चाहिये, जिनमें 'षड्दव्याणि' जैसे पद -प्रयोगों द्वारा छह द्रव्यों का विधान पाया जाता हो; क्योंकि 'बहुकृत्वः' (बहुत बार) पद का वाच्य कम से कम तीन बार तो होना ही चाहिये । साथ ही यह भी बतलाना चाहिये कि जब भाष्यकार दूसरे सूत्र के भाष्य में द्रव्यों की संख्या पाँच निर्धारित करते हैं-उसे गिनकर बतलाते हैं (एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पंच द्रव्याणि च भवन्ति )-और तीसरे सूत्र के भाष्य में यहाँ तक लिखते हैं कि द्रव्य नित्य हैं तथा कभी भी पाँच की संख्या से अधिक अथवा कम नहीं होते (न हि कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति ), और उनकी इस बात को सिद्धसेनगणि इन शब्दों में पुष्ट करते हैं कि 'काल किसीके मत से द्रव्य है, परन्तु उमात्वातिवाचक के मत से नहीं, वे तो द्रव्यों की पाच ही संख्या मानते हैं (कालश्चेकोयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते, वाचकमुख्यस्य पंचैवेति ).. तब प्रस्तुत भाष्य में षड् द्रव्यों का विधान कैसे हो सकता है ? .. (ख) अत्राह एवमिदानीमेकस्मिन्नर्थेऽध्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसंग इति । For Private And Personal Use Only
SR No.521565
Book TitleJain_Satyaprakash 1940 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy