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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[वर्ष
आत्मा की स्पष्ट झलक । भले ही भाष्य के शब्द राजवार्तिक के शब्दों से बिलकुल अक्षरशः न मिलते हों, किन्तु दोनों के वाक्यों का प्रसंग एक है, सूत्र तक एक हैं । हम आगे चल कर बतायेंगे कि भाष्य की अक्षरशः पंक्तियाँ बिलकुल साधारण हेरफेर से राजवार्त्तिक में अनेक जगह उपलब्ध होती हैं ।
(ग) ऊपर तर्क किया गया है कि राजवार्त्तिक में जिस वृत्ति का उल्लेख है, यदि वह प्रस्तुत भाष्य है तो उसमें 'कालश्च ' सूत्र होना चाहिये न कि 'कालश्चेत्येके' । इसके उत्तर में हमारा कहना है कि यदि इस वृत्ति में ' कालथ ' सूत्र था तो इसका स्पष्ट मतलब यह हुआ कि इसमें काल को पृथक् द्रव्य माना गया होगा; और यदि इस वृत्ति में काल के स्वतंत्र द्रव्य का उल्लेख था तो फिर इस वृत्ति के विषय में द्रव्यपंचत्व का प्रश्न ही नहीं उठ सकता,
१ दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् पं. मेहन्द्रकुमार और पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीद्वारा सम्पादित न्याय कुमुदचन्द्र की भूमिका में पृ. ७१ पर भाष्यकार और अकलंक के संबंध में पं. कलाशचन्द्रजी ने निम्न पंक्तियाँ लिखी हैं- " अकलंक के वार्त्तिकग्रन्थ से प्रतीत होता है कि अकलंक देव के सन्मुख उक्त भाष्य उपस्थित था । कई स्थलों पर उन्होंने उसके मन्तव्यों की आलोचना की है और कहीं कहीं अनुसरण सा भी किया प्रतीत होता हैं । उदाहरण के लिये, ' अणवः स्कंधारच ' सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'कारणमेव तदन्त्यः ' आदि पद्य उद्धृत किया है। अकलंक देव ने उसकी आलोचना की है । तथा ' नित्यावस्थितान्यरूपाणि ' सूत्र की व्याख्या में 'वृत्तौ पचत्ववचनात् षड्द्रव्योपदेशव्याघातः ' वार्त्तिक का व्याख्यान करते हुए लिखा है- " वृत्तौ उक्तम् - अवस्थितानि धर्मादीनि न हि कदाचित् पंचलं व्यभिचरंति । यह वाक्य भाष्य में इस प्रकार है- “ अवस्थितानि च, न हि कदाचित् पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति । ” इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्ति शब्द से अकलंक ने भाष्य का निर्देश किया है ।
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प्रथम अध्याय के 'एकादीनि ' आदि सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने किसी आचार्य के मत का उल्लेख ' केचित् ' करके किया है, जो केवलज्ञान की दशा में भी मति आदि ज्ञानों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । अकलंक देव ने इस मत का खंडन किया है । ' दग्धे बीजे यथात्यन्तं ' आदि एक श्लोक भी उद्धृत किया है जो भाष्य में पाया जाता है । तथा ग्रन्थ के अन्त में 'उत्कं च' करके कुछ श्लोक दिये हैं जो भाष्य में मिलते हैं । इसके सिवा भाष्य में सूत्र रूप से कही गई कई पंक्तियों का विस्तृत व्याख्यान राजवार्त्तिक में पाया जाता है । यथा, 'शुभं विशुद्धमव्याघाति ' आदि सूत्र के भाष्य में शरीरों में संज्ञा, लक्षण आदि से भेद बतलाया है । अकलंक देव ने उसका विवेचन दो पृष्टों में किया । तथा 'सम्यग्दर्शन' आदि सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम्, उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः ' लिखा है । अकलंक देव ने इन्हें वार्त्तिक बनाकर उनका आशय स्पष्ट किया है । कहा जा सकता है कि वार्त्तिकग्रन्थ से भाष्यकार ने इन्हें ले लिया होगा । किन्तु पूर्वोक्त अन्य सव बातों के साथ इसकी समीक्षा करने पर यही प्रतीत होता है कि अकलंक देव के सन्मुख उक्त भाष्यग्रंथ उपस्थित था और उन्होंने उसके कुछ मन्तव्यों की आलोचना और कुछका आदान करके अपनी न्यायबुद्धि का परिचय दिया है ।
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