SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ वास्तविक बात यह है कि ' अर्हत्प्रवचन' पद · अर्हत्प्रवचनहृदय के लिये ही प्रयुक्त हुआ है । ग्रंथ का अर्हत्प्रवचनहृदय गोण (गुणनिष्पन्न ) नाम इसलिये है कि इसमें प्रवचन की मुख्य मुख्य बातें गर्भित हैं । स्वयं उमास्वाति अपने ग्रंथ को 'अर्हत्प्रवचनैकदेश' कहते भी हैं । अतः ' अर्हत्प्रवचनहृदय,' 'अर्हत्प्रवचनैकदेश' का ही सूचक हो सकता है । मतलब यह कि जैसे हृदय, शरीर का सारभूत एकदेश है, उसी तरह उमास्वाति की प्रस्तुत रचना अर्हत्प्रवचन का सारभूत एक देश है । संक्षेप में, 'गुण' शब्द पर उठाई गई आपत्ति का निराकरण करनेके लिये अकलंक ने एक तो स्वयं सूत्रकार के मूलसूत्रों का प्रमाण दिया, जिसका दिया जाना उनकी दृष्टि में ज़रूरी था, कारण कि जिस सूत्रग्रंथ पर वे अपना वार्तिक लिख रहे हैं, प्रथम उस ग्रंथ का प्रमाण देना उन्होंने आवश्यक समझा; और दूसरे 'अन्यत्र चोक्तं ' कह कर एक अन्य शास्त्र का प्रमाण भी दिया । पं. जुगलकिशोरजी ने ' अर्हत्प्रवचन' को तत्वार्थसूत्र का वाचक अपने लेख में स्वीकार किया भी है, अतएव 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामक अनुपलब्ध सूत्रग्रंथ की कल्पना सर्वथा निर्मूल है। 'अर्हत्प्रवचन', 'अर्हत्प्रवचनहृदय' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, और उसे तत्त्वार्थसूत्र (वास्तव में सभाष्यतत्त्वार्थसूत्र ) का वाचक मानना ही ठीक है। (ख) यही एक प्रश्न उठता है कि जिस अनुपलब्ध अर्हत्प्रवचनहृदय की कल्पना की जा रही है, वह ग्रंथ दिगंबरीय था या श्वेताम्बरीय ? तत्वार्थसूत्र 'अर्हत्प्रवचन का एकदेशसंग्रह है, यह मत तो स्वोपज्ञभाष्य के कर्ता उमास्वाति तथा सिद्धसेन आदि श्वेताम्बर आचार्यों का है । पूज्यपाद, अकलंक आदि दिगम्बर आचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र को 'अर्हत्प्रवचन का एकदेशसंग्रह' नहीं कहा । फिर ऐसी दशा में पं. जुगलकिशोरजी, जो श्वेताम्बर वाक्यों को प्रमाण नहीं मानना चाहते, और जो भाष्य की स्वोपज्ञता में संदेह करते हैं, यह कैसे कह सकते हैं कि " उमास्वाति ने अपने तत्वार्थसूत्र में उक्त वाक्य का संग्रह 'अर्हत्प्रवचन हृदय' ग्रंथ पर से किया है ? ” तथा “ उनका तत्त्वार्थसूत्र, अर्हत्प्रवचन का एकदेशसंग्रह होने से इसमें आपत्ति की कोई बात भी नहीं।" (ग) पूर्वपक्ष के (ग) भाग में ऊपर जो राजवार्तिक के 'आर्हते हि प्रवचने' आदि उल्लेख देकर तर्क किया गया है, वह कुछ महत्व का नहीं। वही तर्क परपक्ष के लिये भी लागू हो सकता है । वहाँ भी प्रश्न हो सकता है कि जहाँ भी राजवार्तिक में 'आर्हते हि प्रवचने' आदि उल्लेख हैं, क्या वे सब उल्लेख अनुपलब्ध अर्हत्प्रवचनहृदय के अस्तित्व का सूचन करते हैं ? मेरी यह व्याप्ति नहीं कि जहाँ भी अर्हत्प्रवचन आदि शब्द पाये जॉय वे सब सभाष्यतत्वार्थसूत्र के द्योतक हैं । मेरा कहना है कि राजवार्तिक के उक्त उद्धरण में For Private And Personal Use Only
SR No.521565
Book TitleJain_Satyaprakash 1940 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy