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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - કતિષય સંશોધન [१०५] उल्लेख करना भी भूल है अर्थात् दोनों में वर्णनक्रम की ऐसी अन्य कई स्थानों में भी भूले दृष्टिगोचर होती है।" पृ० ९० पं० १२ टिप्पणी में निम्न लेख और बढ़ा कर पढ़ना 'श्रीविजयतिलकमरिरास का सार लिखते हुए श्रीविद्याविजयजीका, मूल के आशय के विरुद्ध, यह लिखना कि 'इंद्रविजय वाचक भानुचन्द्रजीनी बोल लइने अजमेर पहेांच्या' सरासर अयुक्त है।" क्रमांक ६१ में 'कावीतीर्थ विषयक लेख में संशोधन' शीर्षक लेख में पृ०४५ पं० १८ के आगे निम्न लेख और बढाकर पढे:-- (५) “यद्यपि श्रीयुत देसाईजीका रत्नतिलक प्रासादकी प्रशस्ति के अनुसार यह लिखना ठीक है कि उसमें सं० १६५४ श्रावण वदि ९ को केवल मंदिर बनना लिखा है, प्रतिष्ठा नहीं। किन्तु सर्वजित प्रासाद की प्रशस्ति में सं० १६४९ मगसिर सुदि १३ को प्रासाद 'कारित' के साथ में 'प्रतिष्ठित' भी साफ लिखा है अतः यह तिथि निश्चयपूर्वक प्रतिष्ठा की ही लिखी है अन्यथा प्रत्येक मूर्तियों के लेखों के भावार्थ अशुद्ध हो जावगे ।' खभात के संबंध में संशोधन "श्री जैन सत्य प्रकाश" क्रमांक ५३-५४ (संयुक्त) पृ. २१७ में मुनिश्री यशोभद्रविजयजी ने खंभात में माणेकचोकमें श्रीनगीनदास सांकलचंद की जमीन मेंसे खाली जमीन खुदाई करते हुए ता. ३०-११-३९ को अन्यान्य मूर्तियों के साथ में जो श्री पार्श्वनाथजी का परिकर निकला है उसका लेख इस प्रकार प्रकाशित किया है. "सं. १६६९ वर्षे आषाढ सित प्रयोदशीदिने उकेशज्ञातीय सो. तेजपाल भार्या तेजलदेनाम्न्या स्वश्रेयसे श्रीपार्वनाथपरिकरः कारितः । प्रतिष्ठितश्च तपागच्छे श्रीविजयसेनसूरिभिः। श्री पं. मेरुविजयः प्रण(म)तितराम् । सकलसंघाय मंगलं भूयात् ।” __आगे मुनिश्रीने लिखा है कि "आ लेखमां गामना नामनो निर्देष नथी. जो ए होत तो मूळे आ परिकर कया स्थळनो हशे ते जाणी शकात ।" इसके उत्तर में निवेदन है कि सोनी श्री तेजपालजी खंभातनिवासी थे और उन्होंने अनेकों प्रतिष्ठादि धर्मकार्य किए थे। वर्तमान में श्री शत्रुजय तीर्थपर जो मुख्य मंदिर है वह उन्हींका जीर्णोद्धार कराया हुआ है (देखो श्री हीरविजयमूरिरास पृ० १६५ ६६ आदि । इसके सिवाय (उनके देहावसान के पश्चात) उनकी पत्नी तेजलदेजी ने एक श्री विजय चिन्तामणि पार्श्वनाथ. जी का भूमिगृह सहित मदिर खंभात में माणेकचौकमें खिडकीमें निर्माण कराकर गुजराती सं १६६१ वैशाख सुदि ७ को श्री विजयसेनमूरिजी से प्रतिष्ठा कराई थी जिसकी प्रशस्ति इसी मंदिर में लगी हुई है, उसका For Private And Personal Use Only
SR No.521564
Book TitleJain Satyaprakash 1940 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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