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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3] જૈનદર્શનકે કર્મવાદ [४] करता है जैसे कि एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके जीव इसी कर्मसे चलते फिरते रहते है। बादर नामकर्म वह है जिससे जीवांका शरीर चक्षुग्राह्य बनता है, जैसे पृथ्वी, पानी, द्वीन्द्रिय से लेकर मनुष्य तकका शरीर। पर्याप्त नामकर्मसे श्वासोश्वास, भाषा, मनःपर्याप्तिको पूरी करता है। प्रथमकी आहार, शरीर और इंद्रिय ये तीन पर्याप्ति तो सभी जीव पूरी करते हैं मगर पीछेकी तीनमें से एकेन्द्रिय श्वासोश्वासको, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चौरेन्द्रिय और असंज्ञी भाषाको, और संज्ञी पंचेन्द्रिय मनःपर्याप्तिको पर्याप्तनामकर्मसे ही पूरी कर सकता है। प्रत्येकनामकर्म से जीवों को भिन्न भिन्न शरीर मिलता है। स्थिरनामकर्मसे शरीर के अवयव स्थिरता को प्राप्त होते है । शुभ नामकर्मसे नाभिके उपरका का भाग शुभपने को प्राप्त होता है। किसी भी मनुष्यको पांव लग जांय तो उसे गुस्सा लग जाता है मगर उसके चरणमें सिर झुकाने पर वह खुश होता है, इससे साबित होता है कि उपरका भाग शुभ है । सौभाग्य नामकर्म से परिचयहीन आदमीका भी बड़ा ही आदर-सत्कार-सम्मान होता है । सुस्वर नामकर्मसे मधुर ध्वनि होता है। आदेय नामकर्मसे किसी कार्य में इस कर्मवालेकी सलाह ली जाती है, उसे सम्मान मिलता है। यशःकीति नामकर्म से सर्वत्र यशोधाद होता है और सर्वत्र कीर्ति प्राप्त होती है। यह उस दशक कहलाता है। स्थावर नामकर्मसे जीव जहां उत्पन्न हुआ वहांसे हिलचल नहीं सकता, जैसे पृथ्वी, वृक्ष आदि दुःख पडने पर भी वहांसे खिसक नहीं सकते । सूक्ष्म नामकर्मसे शरीर ऐसा सूक्ष्म होता है कि अनन्त शरीर मिलकर भी चक्षुगोचर नहीं होता है । अपर्याप्त नाम: कर्मसे अपनी अपनी पर्याप्तिको पूरी नहीं कर सकता है। साधारण नामकर्मसे. एक शरीरमें अनेक जीव रहते हैं । आलु आदि वनस्पति ऐसी ही साधारण मानी है । अस्थिर नामकर्मका कार्य शरीर के अवयवोंकी अस्थिरता उत्पन्न करनेका है । अशुभ नामकर्म नाभिके नीचे के भागमें अशुभता उत्पन्न करता है, इसका खुलासा उपर शुभ कर्ममें आ गया है । दुर्भाग्य नामकर्म से पूर्व परिचित हो और उपकार करे तो भी जनसमूह उसका आदर नहीं करता। दुस्वर नामकमसे खराब स्वर बनता है जिससे काकके कठोर आवाज को तरह सुननेवालेको अनिष्ट मालुम देता है। अनादेय नामकर्मसे जहाँ जाय वहां उस कर्मवाले जीवकी किसी कार्य में सलाह नहीं लि जाती और उसका अनादर होता है। इसको स्थावर दशक कहते हैं । अपयशकीर्तिसे सर्वत्र बदनामी प्राप्त करता है। [क्रमशः] भूल सुधार—गतांकमें प्रकाशित इस लेख में निम्न परिष्कार करना [१] पृ. ८३ पंक्ति ९ में-सोता हुआ सुखसे जागे उसे निद्रा कहते है और दुःखसे जागे उसे निद्रानिद्रा कहते है। [२] पृ. ८५ पंक्ति ९-संज्वलन कोध, मान, माया, लोभ यथाख्यात चारित्र को रोकते है जौर उसकी स्थिति १५ दिन की होती है । For Private And Personal Use Only
SR No.521564
Book TitleJain Satyaprakash 1940 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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