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શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ
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आयके उवसग्गे-तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु। पाणिदयातवहेउं, सरीरवोच्छेयणट्टाए ॥ पिं० ६६६ ॥ आदंगे उवसग्गे, तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ। पाणिदया तवहेऊ सरीरपरिहारवोच्छेदो ॥ मू० ६१ ॥ उत्त० सू० अ० २६ गा० ३५, पिं० नि० गा० ६६६ मू० प० ६ गा० ६१ ॥ निव्वाणं खलु कजं, नाणाइतिगं च कारणं तस्स। निव्वाणकारणाणं च, कारणं होइ आहारो ॥ पिं० ६९ ॥ नाणाइ तिगरसेवं आहारो मोक्ख ने मस्स ॥ पिं० ७० ॥ धम्म नाइक्कमे भिक्खू, धम्मझाणरओ भवे ॥ पिं० वृत्ति ६॥ श्री वोराचार्यकृत पिं० नि० गाथा ६६९ की वृत्ति की छट्ठी गाथा । णाण] संजमढे झाणटुं चेव भुंजेजो ॥ मू० ६२ ॥
श्रीमद् वढेरक आचार्य ने पिंड नियुक्ति की सरासर नकल कर डाली है। हां! इतना निर्णय कर लिया था कि जहां दिगम्बर के खिलाफ कथन है वहां बड़ी सफाई से दिगम्बर तत्त्व भरदेना जिससे नकल का कार्य फूटे ही नहीं। उपधि व पात्र का अधिकार तो सर्वथा छोड़ ही दिया । और जहां जहां छोटा भेद मालूम हुआ वहां वहां कुछ शब्द-परिवर्तन कर दिया । पिं० नि० गा० ३१६ और मू०प०६ गा० १७ में साम्प्रदायिक शब्दों का ही अन्तर है, उसमें वस्त्र शब्द को उडाकर सवृद्धिक-अवृद्धिक शब्द दाखल कर दिए हैं। यहां और भी अनेक गाथाएं इस शकल की हैं।
टीकाकार आ० श्री वसुनन्दीजी ने भी मूलाचार की टीका म गुप्त रीति से सटीक पिंडनियुक्ति का कुछ न कुछ सहारा लिया है। जैसा कि पिं० नि० गा० ३०३ व ३०४ का कथन मू०प० ६ गा० १५ की टीका में ठीक संगृहीत कर लिया गया है । कुछ भी हो इस पिंडविशुद्धि की जड़ श्री पिंडनियुक्ति ही है।
( क्रमशः)
स्वी४।२ १ श्रीकल्पसूत्रम्-श्रीसमयसुन्दरगणिकृत-कल्पलताव्याख्यायुक्तम् २ श्रीसामाचारीशतकम् कर्ता-श्रीसमयसुन्दरगणि.
ઉપરના બન્ને ગ્રંથ-શ્રી જિનદત્તસૂરિ 1ન ભંડારના કાર્યવાહક ઝવેરી મૂલચંદ હીરાચંદ, ઠે. મહાવીર સ્વામીનું દેરાસર, પાયધુની, મુંબઈથી પ્રકાશિત થયા છે. પહેલાંની પ૦૦ અને બીજાની ૩૭૫ પ્રત ભેટ તરીકે કાઢી છે.
३ आदर्श जैन दर्शनचोविशी तथा अनानुपूर्वी (त्रिरंगी चित्रमय) अश ५.भगवानहास रेन.. भातिसिंह भाभिया रास्ता रायपुर सीटी. भूदय-हाढ ३पिया.
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