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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकावीतीर्थविषय लेख में संशोधन लेखक-श्रीयुत पन्नालालजी दुगड "श्री जैन सत्य प्रकाश" क्रमांक ४६-४७ (संयुक्त ) ४८ में कायोतीर्थ के सुप्रसिद्ध मंदिरों के विषय में 'सासु बहुनां मंदिरो' शीर्षक एक लेख मुनिराज श्री सुशीलविजयजी का प्रकट हुआ था । उसमें उक्त मंदिरों की प्रशस्तिएं प्रकट करने के साथ में जो विवेचन किया गया था उसमें कितनी ही बातों में ऐतिहासिक स्खलनाएं हुई थीं। उनपर उचित प्रकाश डालने का मेरा विचार बहुत दिनों से था परन्तु जब तक कावी के सम्बन्ध की अन्यान्य बातें ज्ञात न हों तब तक कुछ लिखना उचित नहीं समझा । हर्ष का विषय है कि इसी पत्र के क्रमांक ५९ में 'श्रीकाधीतीर्थना लेखो' शीर्षक लेख विद्ववर श्रीयुत मोहनलालजी दलीचंदजी देसाई एडवोकेट का प्रकट हुआ है जिसमें वहां के अन्यान्य लेखों के प्रकट करने के साथ में उक्त लेख की कुछ स्खलनाओं पर भी प्रकाश डाला गया है। किन्तु साथ में कुछ नवीन स्खलनाऐं भी हो गई है। अतः इतिहास की दृष्टि से उक्त दोनों लेखों में अब भी निम्न चार बातें संशोधनीय हैं: (१) सर्वजितप्रासाद की प्रशस्ति में सं. १६४९ मार्गशीर्ष शुक्ला १३ को श्रीविजयसेनसरि जी द्वारा उक्त मन्दिर की प्रतिष्ठा किया जाना लिखा है किन्तु श्रीविजयसेनसूरिजी ने तो उससे केवल १० दिन पहले ही राधनपुर से लाहोर की तरफ विहार किया था तब फिर प्रशस्ति के उल्लेखानुसार उक्त तिथि को इस मन्दिर की प्रतिष्ठा किन्होंने की ? इसके उत्तर में अन्यान्य ऐतिहासिक उदाहरणों से यह बात साफ प्रकट है कि उस समय में जहांपर स्वयं आचार्य नहीं पहुंच पाते थे वहां पर उनके शिष्य या सम्प्रदाय के साधु प्रतिष्ठा करते थे और प्रतिष्ठाकारक मुख्य नाम आचार्यश्री का ही खुदवाते थे और कहीं कहीं पर अपना नाम भी प्रकारान्तर से सूचित कर देते थे [ इस प्रकार के बहुतसे उदाहरण विद्यमान है] । अतः उक्त तिथि को यह प्रतिष्ठा उनके किसी साधु ने को मानना उचित जान पड़ता है, और यदि इस मन्दिर के मूलनायक श्रीऋषभदेवनी की मूर्ति श्रीसम्प्रति राजा की निर्माण की हुई मूर्तिओं जैसी ही बनी हुई प्राचीन हैं तो श्रीदीपविजयजी ने अपने स्तवन में ठीक ही लिखा है [ देखो क्रमांक ५९ पृ. ३९३ कड़ो५] । (२) इस मंदिर के मूलनायकजो के आजुबाशु जो चार मूर्तियां हैं जिनमें से दो विना लेखकी हैं और दो पर श्रीविजयसेनसरिजी ने प्रतिष्ठा की, ऐसा लेख विना संवतादि के है तो इन चारों की प्रतिष्ठा भी अधिक संभव + मैंने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में श्रीयुत देसाईजी को भी ता. १३-२-१९४० के पत्र में यह सूचित कर दिया था । For Private And Personal Use Only
SR No.521562
Book TitleJain Satyaprakash 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size25 MB
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