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અંક ૧] દીવાન રાવ શાહ અમરચંદજી સુરાણા [१] उसमें आपको बहूत धर्मप्रेमी, हीन दीन जनोद्धारक, धर्मधुरन्धर श्रावक, गुरुदेवरागी, संघलायक आदि लिखा है। आपको स्थानीय भांडासरजी पवं नेमीनाथजी के मंदिर का जीर्णोद्धार कराने वास्ते ाचार्य जिनहर्षसरि ने लिखा है । यह पत्र वि० सं० १८६९ का है । आपका शीघ्र ही देहावसन हो जाने से एवं रणक्षेत्र में व्यस्त रहने के कारण आप जीर्णोद्धार नहीं करा सके । यह पत्र बहुत महत्व का होने की वजह से उसकी अविकल नकल यहां दी जाती है । यह पत्र बाबु श्री अगरचंदजी तथा श्री भंवरलालजी नाहटा के संग्रह में हे।
“॥ स्वस्ति श्री पार्श्वजिनं प्रणम्य श्री बीकानेर नगरात् भट्टारक । श्री जिनहर्षमरिवराः सपरिकाः श्रीरतनगढनगरे सुश्रावक । पुण्यप्रभावक श्री देवगुरुभक्तिकारक श्री जिनाज्ञाप्रतिपालक । श्री पंचपरमेष्ठी महामंत्रस्मारक अनेक दीन जनोद्वारक । सर्व शुभ बोलेलायक । संघलायक संघमुख्य । सुराणा । मा ॥ अमरचंदजी योग्य सदा धर्मलाभ वांचज्यो । इहां श्री जिनधर्म में प्रसादें सुख साता छै थांरा सुख सातारा समाचार लिखवा । तथा अगरौ श्रीसंघ दिन दिन सेवाभक्ति विशेष साचवै छै व्याख्याननें श्री पन्नवणाजी सवृत्ति वचै छै सु जांणज्यो तथा थांगै कागद आयौ समाचार लिख्यो सु दुरुस्त छ । थारौ कागद ३ बखतमल सिधाया पछे आयो सु थांरी अरज मंजूर करने उणांने देसणोक सु ते माया छै विशेष समाचार पं। ज्ञानचंद्र आयो कहिसी तथा नमिनाथजी रौ देहरौ रो जीर्णोद्धार करावण ज्यु छै । सा। कपूरचंद जी विशेष हमगीर छै पिण थां सरिखा पुण्यवंत ग्रहस्थरै सहाय सु ओ काम प्रमाण चढे फेरे आगले ठोड सुं भांडसरजी कनें करावण री सला छै सु विचार तो अटै आयां थांसुं हुसो समाचार पाछो देज्यो। थे लायक योग्य धर्मधुरंधर श्रावक छो धर्मरागी गुरुदेव धर्मरागी छौ । धर्मराग धर्मस्नेह राखो तिणथी विशेष राखज्यो थाने धर्म ध्यान में सदा याद करा छां । थारौ मदा उदय चाहां छां । ग। सौभाग्यसुंदर गणिरा । महिमाकल्याण गणिरा । सुमतिमोभाग गणि प्रमुख ठाणे १२५ नौ धर्मलाभ वांचज्यो सं. १८६९ ।"
इस लेख की प्रस्तुत सामग्री मुझे अपने ज्येष्ठ भ्राता भंवरलालजी नाहटा और शाहजी के वंशधर शाह संसकरजी सुराणा से प्राप्त हुई है। अंत में आप दोनों श्रीमानों का हृदय से आभार मानता हूं। अमरचंदजी के वंश का संपूर्ण इतिहास मेरे पास लिखा पडा है, जो समय समय पर यथास्थान इसी पत्र के अगले अंको में प्रकाशित होता रहेगा। इनके आलावा में अपने पूज्य पिताजी श्री फुलचंदजी बांठिया, बावू अगर. चंदजी नाहटा, श्री रूपचंदजी सुराणा और प्रोफेसर श्री नरोत्तमदासजी स्वामी M. A. महोदयों को . हार्दिक धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने इस लेख को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया है, और खास कर भाइश्री भंवरलालजी नाहटा के प्रोत्साहन का सुफल है ।
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