SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनदर्शन का कर्मवाद लेखक : आचार्य महाराज श्री विजयलब्धिमूरिजी जैनदर्शन एक अनुपम दर्शन है, यह बात इसके कर्मवाद से जगत में जाहिर है । जैन साहित्य में कर्मग्रन्थ, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में, लक्ष श्लोक से भी अधिक भाग, कर्म सम्बन्धि विचारणाओंसे भरा है। यदि कर्म के स्वरूपको समज लिया जाय तो दुनिया की किसी भी बूटी पर, पामर जन परम पवित्र जगत्पावन परमेश्वर का जो दोष निकालते हैं वह कमी नहीं बनने पाता। जैन दृष्टि से आत्मा आठ प्रकार के कर्म से मलिन हो कर शुभाशुभ कर्म द्वारा सुख-दुःख को भोग रही है । यह कर्म पौदर्गालक होने के कारण, इसमें ईश्वर का निमित्त मानने की जरूरत नहीं रहती। अफीम भक्षण करनेवाला, अफीम के जहरके कारण मर जाता है और घृत दुग्ध आदि पौष्टिक पदार्थों से जीवन को पुष्ट बनाता हैं। इस तरह के हानि-नुकसान में बीच में अन्य का निमित्त मानने की आवश्यक्ता नहीं है। ऐसे ही अपने किये हुए भले बुरे कर्म ही सुख-दुःख दे सकते हैं । अतः प्रभु को पावनता में खलल पहूंचानेवाले निमित्त रूप मानता नितान्त अनावश्यक है। क्यों की परम पवित्र उपकारी प्रभु निमित्तकारण से तारक ही बन सकता है, न कि मारक या दुःखदाता । अगर वह इस प्रवृत्ति में भाग लेता तब तो कुकर्म करते समय ही हमें रोक देता, जिससे फलप्रदान के झगडे में उसे न उतरना पडे क्योंकि वह अनन्त शक्तिसम्पन्न है और न्याय भी यही मार्ग बतलाता है, जैसे-पिता देखे कि लडका जहर पीता है तो फौरन वहां ही उसे अटका देगा, परन्तु जहर पीने के बाद सजा देने को तैयार नहीं होगा। प्रभु अनन्त ज्ञानी होने से हरदम हमारी क्रियाओं को देख सकता है। उस समय न रोक कर पिछे से बुराई का बुरा फल देने को तत्पर हो जाना न्यायबहिष्कृत हैं। ___आत्मा अनादि काल से कर्मविलिप्त है। कोई भी ऐसा समय नहीं था कि आत्मा निर्मल थी। अगर उसको निर्मल मानकर कर्म पिछे से लगे माना जाय, तब तो सिद्ध भगवान के निर्मल आत्मा में भी कर्म लगजाने का संभव होगा। और ऐसा मानने से त्याग-तप-संयम-ध्यान-क्रियाकाण्ड सभी पर पानी फिर जायगा। कारण कि बन्ध ही बन्ध रहा, फिर इन क्लेशों से क्या मतलब ? और जो सर्वथा निर्मल है वह समल हो ही नहीं सकता। प्रश्न-यदि जीव अनादि से, कर्म से मलिन है तो वह अनादिबद्ध होनेसे कभी भी मुक्त नहीं हो सकता, क्यों कि बद्ध दशा जब अनादि है तब अनन्त ही रहनी चाहिये ? उत्तर-भाइ ! आपका कहना सत्य है, आकाश की तरह ध्रुव अनादि पदार्थ का नाश नहीं होता है। वैसी अनादिता कर्म और जीव के संयोग की हम मानतें तब तो बद्ध आत्मा मुक्त नहीं हो सकती थी, परन्तु हम तो For Private And Personal Use Only
SR No.521562
Book TitleJain Satyaprakash 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy