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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५ ३- श्री शान्तीनाथजी, श्री चन्दाप्रभूजी' आदि 'जीकारान्त' नाम आधुनिक भाषा के प्रतीक हैं । बाहरवीं सदी में तो क्या उसके सैंकडों वर्षों के बाद तक ऐसे शब्दप्रयोग नहीं होते थे । ४-'दीपचंद, अबीरचंद, रतुलाल, कूनणमल, हेमराज, रूपचंद ' आदि जो पुरुषों के नाम इन लेखों में प्रयुक्त हुए हैं वे प्रायः सभी बीसवीं सदो के नाम हैं। जिनदत्तसूरिजी के समय में इस प्रकार के नाम प्रचलित नहीं थे। ५-'दीपादे, रतनादे, हेमादे' आदि स्त्रियों के नाम भी आधुनिक हैं। लेख निर्दिष्ट समय में तथा उसके बाद सैकडों वर्षों तक ये नाम उक्त रूप में नहीं लिखे जाते थे। ६-'खरतरगच्छे' इस सप्तम्यन्त के बाद 'गणाधीश्वर' यह विशेषणप्रयोग खास सूचक है । हमने जिनदत्तसरिके समय के और उसके बाद के अनेक शिलालेख और ग्रन्थप्रशस्तियां देखी हैं पर कहीं भी खरतरगच्छ' शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं हुआ । जहाँ तक हमें याद है, चौदहवीं सदी के प्रारंभ से शिलालेखों में 'खरतरगच्छ' शब्द प्रयुक्त होने लगा था । सुमतिगणिने अपनी 'गणधर सार्धशतक टीका'-जो जिनदत्तसूरिजी से लगभग सौ वर्ष पीछे की है-में श्री जिनेश्वरसूरिजी का विस्तृत चरित वर्णन किया है, जिसमें पाटण में चैत्यवासियों से शास्त्रार्थ करने और विजय पाने का सविस्तर वर्णन है, पर वहां भी 'खरतर' शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। उसी टीका में सुमतिगणिने श्रीजिनदत्तसूरि का भी सविस्तर चरित्र दिया है पर कहीं भी 'खरतरगच्छ' अथवा 'खरतर' शब्द का सूचन नहि मिलता । इन बातों से हमने जो कुछ सोचा और समझा उसका सार यही है कि चौदहवीं सदी के पहेले के शिलालेखों और ग्रन्थों में 'गच्छ' शब्द के पूर्व में 'खरतर' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ । पर उक्त आठों ही शिलालेखों में 'खरतरगच्छे गणाधीश्वर' इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। ७-प्रतिष्ठा सम्बन्धी सभी प्राचीन लेखों में प्रतिष्ठितं' यह क्रियापद लिखा मिलता है, पर इन सब लेखों में 'सुप्रतिष्ठितं ' लिख कर लेखकने इन लेखोंवाली मूर्तियों को जिनदत्तमरिप्रतिष्ठित सिद्ध करने का गर्भित प्रयत्न किया है। ___ हमारे उक्त संक्षिप्त विवेचन से ही जौहरीजी समझ सकेंगे कि उक्त लेख ऐतिहासिक चीज नहीं, किन्तु किसी गच्छरागी मनुष्य का मूर्खतापूर्ण प्रयत्नमात्र है। गुडाबालोतरा, ता. २०-३-४० For Private And Personal Use Only
SR No.521556
Book TitleJain Satyaprakash 1940 04 SrNo 57
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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