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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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आ० बनासेन ये आ० श्री स्वामीके पट्टधर हैं उस समय के श्रमण संघ के गणनायक हैं जिनके दूसरे नाम दक्षिणाचार्य लोहाचार्य आदि है। दिगम्बर साहित्य में भी श्री लोहाचार्य द्वारा अप्रबालोंका जैन होनेका उल्लेख है।
इससे यह मानना अनिवार्य होता है कि पंजाब और मेरठ जिले के अग्रवाल विक्रमकी दूसरी शताब्दीसे जैन बने हैं।
(देखो-कल्पसूत्र सुखबोधिका वृत्ति, पट्टावली समुञ्चय) मानदेवसूरि वि० सं० २०० करीब ) आ० मानदेवरवरिजी श्री समन्तभद्रसूरि के संतानीय आ० प्रद्योतनसूरि के शिष्य हैं । आप जीवनपर्यन्त छै विकृतिके त्यागी थे, पद्मा जया विजया और अपराजिता ये ४ देवीयाँ आपकी आज्ञामें रहती थी। आप विहार करते करते नाडोल (गोलवाड मारवाड) में पधारे।
इस समय तक्षशिला में कि जहां ५०० जिनालय थे, अनेक जैन रहते थे, प्लेगकी बिमारी फैल गई। इस बिमारीकी शान्ति के लिये तक्षशिला के संघने वीरदत्त श्रावकको भेजकर आ० श्री मानदेवमूरिसे वहां पधारनेको विज्ञप्ति की। आपने शांतिस्तव बनाकर वहां भेज दिया जिसके पाठसे तक्षशिलामें महामारी ( प्लेग) को शान्ति हो गई।
इसके बाद तीन वर्ष बीत जाने पर तुरुष्कोंने तक्षशिला का विनाश किया, वहां की जनता भाग गई मगर माना जाता है कि-बहां कि जिन प्रतिमाएँ आजभी किसी गुप्त स्थानमें सुरक्षित हैं।
इस विषयमें सर जोन मार्शल लिखते हैं कि -"अब मेरा विश्वास है कि सिरकपके F और G ( एफ और जी) ब्लोक के छोटे मन्दिर इन्हीं मन्दिरोमेसे हैं। पहले मैं इन मन्दिरीको बौद्ध मन्दिर समझता था, परन्तु एक तो इनकी रचना मथुरासे निकले हुए आयागपट्टों पर उत्कीर्ण जैन मन्दुिसे मिलती है, और दूसरे इनमें और तक्षशिलासे अबतक निकले हुए बौद्ध मन्दिरोमें काफी भिन्नता है। इन कारणोंसे अब मैं इनको बौद्ध की अपेक्षा जैन मन्दिर ख्याल करता हूँ"।
(देखो, प्रभावक चरित्र, पट्टावली समुञ्चय पृ. ४९, Sil Jolin Mr. shal Archaeological Annual 1914-15, क्रान्तिकारी जैनाचार्य प्रस्तावना)
वा० श्री उमास्वातिजी (वि० सं० ३००)। बाचकवर्य श्री उमास्वातिजी महाराज उचानागरी शाखाके वाचनाचार्य थे, पूर्ववित् थे, आपने ५०० ग्रन्थ बनाये हैं। जान पड़ता है कि-तक्षशिलाके विश्वविद्यालयमें जैन दर्शनके अभ्यास के लिये या उस पद्धतिको सर्वव्यापी बनानेके लिये आपने स्वोपना
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