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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પંજાબ મેં જેનધર્મ [12 ] जब जैन मंघमें कमीश्नरी पद्धतिसे ८४ गच्छ हुये तब आपके इस पंजाबो संघका भावगच्छ या भावडागच्छ नाम पडा है। पंजाबमें यह स्थविःप्रधान संस्था' थो । आजके पञ्जावी जैन भी "भावड" के नामसे ही मशहूर है । कालिकाचार्यका नाम वास्तवमें पन्नाबके धार्मिक इतिहासकी अमर संपत्ति है। (देखो-वृहदकल्पभाष्य,-चूर्णि, पञ्चकल्पचूर्णी, निशिथचूर्णी अ० १०, व्यवहारसूत्र अ० १०, कथावली, कालिकाचार्यकथा, महावीरनिर्वाण संवत् कालगणना, प्रभावकचरित्र, Story of the Kalaka, पट्टावलीसमुन्जय परिशिष्ट ।) आर्य शांतिश्रेणिकसरि (वि० सं० ५० के करीब) राजगृहीका मालंदापाडा और तक्षशिलाका उच्च नगर-ये दोनों स्थान जैन तथा बौद्ध भमणकी विहारभूमि हैं। प्राचीन कालमें यहां आर्यावर्तके प्रसिद्ध विश्वविद्यालय स्थापित थे । आ० सिंहगिरिके :गुरुभ्राता आर्य शांतिश्रेणिकका श्रमणसंघ तक्षशिलाके बाह्यविभाग उञ्चानगर में विचरता था, जैन सिद्धांतका प्रचार करता था । इस श्रमणसंस्थाका नाम है 'उच्चानागरी' शाखा। यह पआबकी ज्ञानप्रचारक प्रधान संस्था थी। (देखो-श्रीकल्पसूत्र, जिनागमनो इतिवृत्त ) श्रीवनस्वामीजी (वि० सं० १०० से १०८ तक) पृ० आ० श्रीवनस्वामीके उपदेशसे मधुमावती ( महुवा ) के श्रावक जावडशाहने श्रीशत्रुञ्जय तीर्थका जीर्णोद्धार कराया और उन्हींके करकमलसे तक्षशिलासे प्राप्त भ० आदिनाथ स्वामीकी प्रतिमाकी यहां प्रतिष्ठा करवाई । (देखो शत्रुञ्जय माहात्म्य, पट्टावली समुच्चय ) आर्यसमितसूरि (वि० सं० ११४ ) आप गृहस्थीपनमें श्रीवज्रस्वामीके मामाजी थे और श्रमण जीवनमें उनके गुरुभ्राता थे । आप विहार करते करते अचलपुरमें पधारे । वहां कृष्णा युगल (काली और हिन्डौन ) मदोके मध्य में ब्रह्मद्वीप (बरनीवा) में ५०० तपस्वी रहते थे, उनका अधिपति पादलेपसे पानी के उपर चलकर अचलपुर में आता था, जिसको देखकर लोगोंको आश्चर्य होने लगा । एक दिन किसी जैनने उस तपस्वी का पादलेप धो दिया इसीसे वह पानी पर नहीं चल सका । ठोक इसी समयपर आ० समितमूरिजीने यहां पधारकर योगचूर्णके प्रभावसे नदीके दोनों किनारेको जोड दिया पुल सा बन गया। आप उस तपस्वी और जनताके साथ इस पुलपर होकर ब्रह्मद्वीप में पधारे। आपने यहां ५०० तपस्विङको प्रतिबोध देकर अपने दिशज्य बनाये, और साथ में गये हुए अग्रवालोंने भी जैनधर्म अंगीकार किया। आचार्यश्री का यह श्रमण संघ "ब्रह्मदीपिको शाखा" के नामसे गणनायक श्री घनसेनमरि के संघ में शामील हो गया। For Private And Personal Use Only
SR No.521554
Book TitleJain Satyaprakash 1940 01 02 SrNo 54 55
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size24 MB
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