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________________ વીર વિક્રમસી [ ३५८ - पर ऐसा पड़ा कि, वह पृथ्वी पर गिर पडा। एक और विक्रमसी पडा हुआ था तो दूसरी ओर सिंह । दोनों ही अंतिम श्वास ले रहे थे। मरने मरते विक्रमसी को विचार आया कि, मेरी मनोकामना तो पूरी हुई, परन्तु नीचे रहै हुए यात्रालु क्यों कर जानेंगे कि, मैंने सिंह को मार दिया है। उपर्युक्त विचार आते ही विक्रमसी ने अपने पास रहै हुए कपड़े को शरीर के घार घर मजबूत बांध दीया और लड़खड़ाता हुआ खड़ा हुआ और वृब जोर से घंट बजाने लगा। उस घण्टे की विजयनाद के साथ साथ उसका आखिरी सांस भी महाप्रस्थान कर गया, उसका नश्वर शरीर उसो स्थान पर गिर पड़ा। इस प्रकार वीर विक्रमसीने अपने प्राणों को बाजी लगा कर सिंह को मार सिद्धाचलजी की यात्रा खुल्लो कराकर यात्रिकों को सिंह के भयसे बचाया। परोपकारी विक्रमसीने आत्मसमर्पण कर इस नश्वर शरीर को छोड कर अपमा नाम अमर कर दीया। आज भी उसका म्मारक शत्रुजय पर्वत पर कुमारपाल राजा के मन्दिर के सामने आने वृक्ष के नीचे मौजूद है। उसके ऊपर बीर-नर के योग्य सिन्दूर का पोषाक शोभा दे रही है। सुना जाता है कि आज भी टोमाणीया गोत्र के भात्रमार नवविवाहित वरवधूओं के कंगनडोरा वहीं खोलते हैं। जब जब मैं शत्रुजय की यात्रा करने जाता हूं तब तब उस वीर विक्रमसी के स्मारक को भावपूर्ण नमस्कार करता हूँ: उस समय वोर विक्रमसी की वीर गाथा मेरे समक्ष खड़ी हो जाती है; और सहसा हृदय से यह उद्गार निकलते हैं "धन्य वीर विक्रमसी ने ही भावज के ताने को सत्य कर दिखाया"।। આજે જ મંગાવો કળા અને શાસ્ત્રીય દષ્ટિએ સર્વાગ સુંદર ભગવાન મહાવીર સ્વામી ત્રિરંગી ચિત્ર ૧૪”x૧૦”ની સાઈઝ, જાડું આટ કાર્ડ અને સોનેરી બર્ડર મદય-આઠ આના ટપાલ ખર્ચ બે આના લખો - શ્રી જૈનધર્મ સત્યપ્રકાશક સમિતિ शिमान ana, anxiet. अमावा. www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.521542
Book TitleJain Satyaprakash 1939 01 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1939
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size852 KB
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