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एक दिन पौषध में मध्य रात्रि के समय वैराग्य रससे प्रति ही कर दीक्षा लेने की भावना भाने लगे । उस अर्से में जंगम कल्पतरु श्रमणभगवान श्री महावीरदेव विचरते हुए वीतभयपत्तन पधारे, जिससे महा राज बड़े खुश हुए, अपने मनोरथ सफल हुए जान कर । संसार विनाशिनी प्रभुदेशना श्रवण कर के भाणेज केशीकुमार को राज्यभार दे कर स्वयं प्रभु के चरणों में जा कर दीक्षा लेली । महाराजा उदयन अंतिम राजर्षि बने ।
प्रभु के चरणो में दीक्षा पालते हुए विविध प्रकार का तप तपने लगे। निरस आहारादि के भक्षण से अंतिम राजर्षि के शरीर में व्याधि उत्पन्न हो गया । अंतिम राजर्षि को व्याधिग्रस्त देख कर किसी वैद्यने कहा कि महाराज, आप दधि भक्षण कर के शरीर की रक्षा करे 'शरीरमार्च खलु धर्मसाधनम्', किन्तु वे महर्षि शरीर पर भी निस्पृह हो कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए एक वक्त वीतभयपत्तन पधारे । उनको पधारे जान कर मंत्रीने महाराजा केशी से कहा कि आप के मामा साहब दीक्षा से उद्विग्न हो कर यहां आए हैं, आपका राज्य छीन लेंगे । केशीने कहा भले ले लो, इन्हीं का ही दिया हुआ है। मंत्री ने कहा- ऐसा नहीं बन सकता। मिला हुआ राज्य वापस कैसे दिया जाय। इनको जहर दिलवा देना चाहिये | मंत्री के वचनों से केशी राजाने पैसा ही कीया: गोपालको से दधि में विष मिलवा कर दिलवा दीया, परंतु देवने तीन दफे दधि में से विष हर लिया। अंत में विषमय दधि भक्षण करने से शरीर में व्याकुलता हो जानेसे अनशन कर लीया और ३० दिनका अनशन पाल भावना भाते हुए उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर के शाश्वता सुख-मोक्ष-को प्राप्त किया ।
उस वक्त देवने क्रोध में आकर धुल की वर्षा करके नगर को दबा दिया । पुनः इसका उद्धार श्री वीरनिर्वाण से १६६९ वर्ष व्यतीत हो जाने पर श्री कुमारपालभूपाल करेगा, एवं प्रभु प्रतिमा को निकाल कर उसी तरह उदयमवत् पूजेगा " श्रीवीरनिर्वाणतः षोडशशतमवषष्टिवर्षाणि यदा यास्यति तदा पशुपुरीत प्रतिमां कुमारभूयः कर्षयिष्यति, पूर्व पूज विष्यति सेति"
इस उल्लेख से सिद्ध हुआ कि वीतभयपत्तन प्राचीन तीर्थ है, और किसी बक यह जैनपुरी थी जहां जैनधर्म रूपी सूर्य तप रहा था।
अब सोचने की बात यह है कि उक्त नगर का फिर से उद्धार हुआ वा नहीं, कुमारपाढपाउने प्रभु प्रतिमा को निकलवा कर पूर्ववत् भाव भक्ति की या नहीं? क्यों कि वर्तमान में जो वीतभयपत्तन ( मेरा) है वो
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