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________________ [१] श्री सत्य विशेष [ ४ अवंती नरेश चंदप्रयोतन इसके रूपमें मोहित होकर दासी और प्रभुप्रतिमा- इन दोनों को लेकर रातोरात वापस चला गया । पाठक इतना ध्यान रखें कि प्रयोतन प्रभुप्रतिमा के सदृश ही में नवीन प्रतिमा बनवाकर साथ ले आया था, उस प्रतिमा के स्थान नवीन प्रतिमा को स्थापन करके ले गया था । प्रातःकाल महाराजा उदयन यह वृत्तांत जानकर चिंतातुर हुए । १० मुकुट महाराजाओं के साथ अवंती पर धावा कीया । अयंतीपति चंडप्रयोतन को हराकर बंधवाकर जेलखाने में डलवा दीया और उसके ललाट पर 'ममदासीपति' यह अक्षरावली खुदवा दी। बाद में चैत्यालय में ( जहां वो प्रभुप्रतिमा थी वहां ) जाकर दर्शन करके प्रभुस्तुति की एवं प्रभुप्रतिमा को उठाने का प्रयत्न किया तो अधिष्ठायक देवने रोका और कि 'हे नृप ! तब पत्तनं पांशुष्टया स्थलं भावि हे राजन! आपका नगर पूलकी वर्षा दय जायगा अतः प्रभु वहां न पधारेंगे। इस बात से महाराजा उदयन उदास होकर वापस लौटे। वापस लौटते वर्षाऋतु हुए रास्ता में आजानेसे छावणी डाल कर वहां ही रह गये। पर्वाधिराज श्रीपर्युषण पर्व आने पर महाराजा उदयनने पौषह लिया तब सूद ( रसोई करनेवालेने) ने जाकर चंडप्रद्योतनसे प्रश्न किया की आज आपके लिए क्या रसीद बनाई चंप्रयोतनमे कुछ सोच कर पुछा 'क्यों भाई ? आज क्या बात है ? आज पर्वाधिराज श्रीपर्युषणापर्य है। महाराजाने पौषधलिया है, आपके लिए रसोई बनानी है ने कहा 'अहो, मुझे तो पता न था, अच्छा हुआ पता लग गया, आज मेरे भी उपवास है' चंडप्रयोतनने खुलासा किया। सूदने ज्योंका त्यों वृत्तांत महाराजा को सुना दिया। इससे महाराजा व प्रसन्न हुए, और विचारने लगे कि यह मेरा धार्मिक बंधु है, इसके साथ खमतखामणा किये बिना मेरे श्रीपर्युषणापर्व पूरी तौर से आराधित कैसे हो सकते हैं? जाऊ इसके साथ खमतखामणा करलं | यह निश्चय करके स्वयं महाराजाने जाकर चंद्रप्रीतम से समतयामणा कीये और ममदासीपति हुन अक्षरों की छिपाने के लिए सुवर्णका एक पट्ट बनवा कर ललाट पर बांध दिया प उसका सारा ही राज्य उसको वापस दे दिया, विशेष में देवकृत उस प्रभुप्रतिमा की भक्की के निमित्त १२००० हजार गांव दिये। वर्षाऋतु बीतने पर महाराजा उदायन वापस अपने वीतभयपत्तन में पधारे। जिस स्थान में छावणी डाली थी उस स्थान में १० राजे साथ में होनेसे वहां दशपुर नामा नगर वसा जिसको अभि मंदसौर कहते हैं। चंडप्रद्योतन स्थापन की हुई नवीन प्रभुप्रतिमा की उसी तरह से भावभक्ति करने लगे । T Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.521537
Book TitleJain Satyaprakash 1938 08 SrNo 37 38
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages226
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size4 MB
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