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________________ १-२] ચમકને સિતારે [३५] करना व्यर्थ है, क्योंकि इस बात का साक्ष्य कई प्राचीन प्रमाणपत्रों में मिलता है, और वे शिलालेख निस्संशय अत्यन्त प्राचीन हैं। मि. जार्ज सी. एम वर्डवुड लिखते हैं कि चंद्रगुप्त और विन्दुमार ये टोनों जैनधर्मावलम्बी थे। चंद्रगुप्त के पौत्र अशोकने जैनधर्म को छोडकर चौडधर्म स्वीकार किया था। 'एनमाइक्लोपीडिया आफ ग्लिीजन' में लिखा है कि वि. सं. २९७ में संसार से विरक्त होकर चंद्रगुप्तने मैसुर प्रान्तस्थ श्रवणबेलगोल में बारह वर्ष तक जैन दीक्षा से दीक्षित होकर सपस्या की, और अन्त में तप करते हुए स्वर्ग धामको सिधारे। मि. बी. लुइसराइस साहब कहते हैं कि चंद्रगुप्त के जैन होने में संदेह नहीं। श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवाल महोदय समस्त उपलब्ध साधनों परसे अपना मत स्थिर कर के. लिखते हैं-"ईमा की पांचवीं शतारूदी तक के प्राचीन जैन ग्रंथ व पीछे के शिलालेख चंद्रगुप्त को जैन राजमुनि प्रमाणित करते हैं, मेरे अध्ययनोंने मुझे जैन ग्रंथों के ऐतिहासिक वृत्तान्तों का आदर करने के लिये बाध्य किया है। कोई कारण नहीं है कि हम जैनियों के इस कथन को-कि चंद्रगुप्त अपने राज्य के अतिम भाग में जिनदीक्षा लेकर मरण को प्राप्त हुआ-न मान । मैं पहला ही व्यक्ति यह माननेवाला नहीं हूं, मि. राहम जिन्होंने 'श्रवलबेलगोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है, पूर्णरूप से अपनी राय इसी पक्ष में दी है और मि. बी. स्मिथ भी अंत में उम ओर झुके हैं।" सांची स्तृप के सम्बंध में इतिहासकारों का मत है कि वह अशोक द्वारा निर्माण हुआ है, और उसका सम्बंध बौद्धों से है. परंतु प्राचीन भारतवर्ष' (गुज.) में डॉ. त्रिभुवनदास शाह ने उस पर नवीन प्रकाश डाला है, उनका कहना है, कि सांचीस्तृप का सम्बंध जैनधर्म और चंद्रगुप्त + से है। वे कहते हैं कि मौर्य सत्ता की स्थापना के बाद सम्राट चंद्रगुप्त ने सांचीपुर में राजमहल बंधवाकर वर्ष में कुछ समय के लिये रहना निश्चित किया ।* चंद्रगुप्तने राजत्याग लर दीक्षा लेने से पूर्व, वहीं के अनेक स्नृप जो आज भी विद्यमान हैं उनमें सबसे बडे स्तूप के घुमट की चारों और + इतिहास के ज्ञाता अभी इस बातका स्वीकार नहीं करते हैं, क्यों कि इस निर्णय के स्वीकार के लिए अधिक प्रबल प्रमाणों की आवश्यकता है। ___* जैनग्रंथों से यह प्रतीत होता है कि श्री भद्रबाहु आचार्य एक दिन उज्जैन में पधारे थे, और चंद्रगुप्त को जो सोलह स्वप्न आये थे. उन स्वमों को आचार्यश्री से कह कर उनका फल कहने की प्राथना की थी यह भो वहीं की घटना है। इससे यह निश्चित है कि यहां पर शयन तो चंद्रगुप्तने किया हो, और शयन किया है तो उनके योग्य राजमहल अवश्य होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.521537
Book TitleJain Satyaprakash 1938 08 SrNo 37 38
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages226
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size4 MB
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