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________________ [१०४] શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ–વિશેષાંક सर्वत्र शान्ति के पश्चाद् सरस्वती साध्वी को भी गच्छ में ली । उनको पराधीनता में जो जो पाप लगे उनका तपश्चर्या द्वारा प्रायश्चित्त किया। स्वयं कालकाचार्यने भी, कितनीक आलोचना करके निरतिचार चारित्र पालन करते हुए गच्छ का भार धारण किया । कालकाचार्य प्रामानुग्राम विहार करते 'प्रतिष्ठानपुर में आए । यह नगर दक्षिण देश में था। यहां का राजा सातवाहन शुद्ध श्रावक तथा साधुभक्त था। उसने भक्ति पूर्वक आचार्य महाराजको चतुर्मास करने को रक्खे । पर्युषणापर्व कब होगा ? गुरुमहाराजने कहा भाद्रपद शुक्ला पंचमी को। राजाने कहा उसी दिन हमारे कुलक्रमागत इन्द्रमहोत्सव आता है। मुझे उस उत्सव में भागलेना आवश्यक है। इस प्रकार एक ही दिन में दो उत्सव कैसे सम्भाले जा सकते हैं ? अतएव कृपया पंचमी के बजाय छठको पर्युषणापर्व रक्खा जाय तो मैं भी पूजा, स्नात्र पौषधादि धर्मकार्य में भाग ले सकुं।" गुरु-महराजने कहा पंचमी की रात्रिका कदापि उलंघन नहीं हो सकता। तब राजाने चोथ रखने के लिए प्रार्थना की। राजाके आग्रह से एवं कल्प सूत्रके 'अंतरावियसे...'इस पाठ का आधार लेकर कालकाचार्यने पर्युषणापर्व का दिन पंचमी के बजाय चोथ रक्खा। इसी प्रकार चौमासी पूर्णिमा के बजाय चौदस की। उसी दिन से समस्त संघने इस प्रथा का स्वीकार किया। कालकाचार्य आनंदपूर्वक संयम पालते हुए प्रतिष्ठानपुर में रहते हैं। किन्तु इनके शिष्य प्रमादी होगए। गुरु महाराजने बहुत प्रयत्न किया परन्तु फिर भी वे ठीक तरह क्रियानुष्ठान नहीं करते। इस पर गुरुजीने सोचा कि ऐसे प्रमादी शिष्यों के साथ रहने की अपेक्षा अकेला रहना कहीं अच्छा है । एसा सोच उन्होंने यह वृत्तान्त घरके मालिक से कहकर, शिष्यों को सोते हुए छोड आचार्य महाराज विहार कर स्वर्णपुर पधार गए । यहां सागरचन्द्र नामके आचार्य स्थित थे,। जोकि कालकाचार्य के प्रशिष्य होते थे उनके उपाश्रयमें गए, उनको अपना परिचय न देते हुए एक कौना मांगकर ठहर गए। दूसरे दिन सागरचन्द्र ने सभा समक्ष मधुर ध्वनि से व्याख्यान दीया और वहां ठहरे हुए वृद्ध साघु (कालकाचार्य) से पूछा " हे वृद्ध मुने! कहो मेरा व्याख्यान कैसा रहा ? कालकाचार्य ने कहा "बहुत सुन्दर"। इसके पश्चाद सागरचन्द्रने अहंकार पूर्वक कहा " अहो वृद्ध साधो! तुमको किसी सिद्धान्तादि का संदेह हो तो पूछो।" www.jainelibrary.org
SR No.521537
Book TitleJain Satyaprakash 1938 08 SrNo 37 38
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages226
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size4 MB
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