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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [22] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [153 मांसं वा शष्कुली वा फाणितं वा पूपं वा शिखरिणीं वा, तत् पूर्वमेव भुक्त्वा पीत्वा पतग्रहं च संलिह्य संमृज्य ततः पश्चादू भिक्षुभिः सार्द्ध गृह प्रवेक्ष्यामि वा निष्क्रमिष्यामि वा मातृस्थानं संस्पृशेत् तन्नैवं कुर्यात्। स तत्र भिक्षुभि: साई कालेनानुप्रविश्य तोतरेतरेभ्य : कुलेभ्य : सामुदामिकमेषणीय वेषिकं पिण्डपातं प्रतिगृह्य आहारमाहरेत्, एतत् खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुकया वा सामग्रम् // ] इति आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमचूलिकाया: पिण्डैषणाध्ययनस्य चतुर्थोडेसे चतुर्विशतितमं सूत्रम / आशाम्बर लेखके आ सूत्रना आदि भागने जतो करी अवशिष्ट पाठ आपेल छे. अर्थ करवामां पण गुजराती भाषान्तरनो आधार लीधेल छे, आ बाबतनी चर्चा जिज्ञासित अर्थमां विलम्बकारी मानी जाती करीए छीए / प्रस्तुतपाठनो भावार्थ___“जंघाबलनी परिक्षीणताने अंगे एक ज क्षेत्रना निवासी या तो मासकल्पादिनी मर्यादाए अमुक क्षेत्रमा रहेल मुनिए ग्रामानुग्राम विहार करी आवेल प्राघूर्णक मुनिने देखीने 'रखेने गोचरीमा भाग न पडावे एवी बुद्धिथी' कदी पण एम न कहेQ के “भगवन् ! आ गाम घणुं नानुं छे. अल्प भिक्षा आपे छे. अने भिक्षाकुलो पण सूतकादिथी रोकाया छे. माटे आप बहारना गामोमां 'परा वगेरेमां' गोचरी माटे पधारो" ' आम कहेवाथी मातृस्थान 'माया' दोष लागे छे. अथवा, मुनिए एम पण न विचारवू के “आ गाममां मारो पूर्वपरिचित भ्रातृवर्ग अने पश्चात् परिचित श्वशूर वर्ग छे. जेवा के गृहस्थो, गृहस्थबानुओ, गृहस्थपुत्रो, गृहस्थपुत्रीओ, गृहस्थ पुत्रवधूओ, धावमाताओ, दासो, दासीओ, चाकरी अने चाकरडीओ, आवा पूर्वपरिचित भ्रातृपक्षवाळा अने पश्चात् परिचित श्वशुर पक्षवाळा कुलमां गोचरीने माटे है प्रथम जइश. अने त्यांथी अनेक जातनी वस्तुओ मने मळशे, जेवी के-शालीना ओदन वगेरे. नयनादिने रुचती रसकस वाळी वस्तु [ नव विगईओ- दुध दंहि माखण धी गोळ तेल मध मदिरा मांस, तलसांकळी, गळमाणु, बुंदो, अने करथो मथेलं साकरमिश्रित दंहि; आ मळेल वस्तु खाइ पीइने पात्रा चोक्खां-साफ करीश, बादमा आगन्तुक मुनिओ न जाणी जाय एवी सावचेती राखी अविकृतवदने तेमनी साथे गृहस्थ कुलमां गोचरी माटे जइश आवीश" आवो विचार करवाथी मातृस्थान 'माया' दोष लागे छ / मुनिए कइ रीते वर्तवं ते हवे जणावे छे: भिक्षाना अर्थी मुनि आगन्तुक मुनिनी साथे ज भिक्षाना उचित समये गृहपतिकुलमां जाय, अने त्यां नाना मोटा कुलमांथी 'एसिय' उदगमादि दोषथी रहित एषणीय, अने 'वेसिय' धात्रीदूतिनिमित्तादि दोषथी रहित मुनिवेषमात्रथी भिक्षा ग्रहण करी ग्रासैषणादि दोषरहित पणे प्राणक मुनिनी साथे आहार वापरे, आ साधु साध्वीनी शुद्ध साधुता छे. // " For Private And Personal Use Only
SR No.521531
Book TitleJain Satyaprakash 1938 04 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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