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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [320 શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ [153 सं. 2451 में प्रकाशित, " त्रैवर्णिकाचार" की प्रस्तावना (भूमिका) पृष्ठ-३ इस लेखसे भली भांति प्रतीत होता है कि भ० सोमसेनजीका त्रैवर्णिकाचार ग्रन्थ दिगम्बर जैन समाजमें प्रतिष्ठित आचार ग्रंथ है। इसीके अनुसार दिगम्बर समाज स्वाचार पालन करता है। 2. दिगम्बर पं. श्रीमान् न्यामतसिंहजी जैन टीकरीवाले लिखते हैं “अब हम त्रिवर्णाचार के भाषाकार एवं भूमिका लेखकसे भी कुछ शब्द कहदेना चाहते हैं / आपका लिखना कि "मुझे तो इस ग्रन्थका प्रायः कोई भी विषय शास्त्र विरुद्ध नहीं जान पडता। इस ग्रन्थमें जो जो विषय बताये हैं उमका बीज ऋषिप्रणीत शास्त्रोमें मिलता है" नितान्त मिथ्या है। सच पूछीये तो आप ही जैसे विद्वानोंकी कृपाका फल है जो दिगम्बर समाजको ऐसी बेहूदी बातें सुननी पडती रही हैं। हमारा तो भाषांतर कारजीको सादर निमंत्रण है कि आप अन्य बातों को छोड दें कृपया इस पुस्तककी बातोंके सम्बन्धमें ही ऋषिप्रणीत शाखोंके आधार उपस्थित करदें / क्या आप बतला सकते हैं कि किसी भी ऋषिने अपने लेखमें ऋतुकालमें भी स्त्रीके साथ भोग करनेका विधान किया है। हमारी तो दृढ धारणा है कि यह सब ब्राह्मणत्व है। ब्राह्मणोमें जब धर्म के प्रतिकूल बोलनेका बल नहीं रहा तव उन्होंने जैन (दिगम्बर) धर्मके ही नामपर साहित्याका निर्माण किया है और उसमें उन्होंने अपनी मान्यताओंको बतलाया है। त्रिवर्णाचार के प्रकरण के प्रकरण ब्राह्मण साहित्यसे मिलते हैं फिर भी भाषाकारजी यही कहते चले जाते हैं कि मुझे इसमें कुछ भी बात जैनधर्म के प्रतिकूल नहीं मालूम पडती है।" -दिगम्बर जैन शास्त्रार्थ संघ, अंबालाका मासिक मुखपत्र “जैनदर्शन" वर्ष-४ अंक-३ इस लेखसे साफ दिखता है कि-दिगम्बर शास्त्रोंकी कैसी शोचनीय दशा है और दिगम्बर शाखनिर्माताओंके उपर अजैन साहित्यकी कितनी गहरी छाप पडी हुई है / वरना कट्टर दिगम्बर विद्वान् भी अपने ग्रंथों के लिये ऐसा क्यों लिखते ? / ३–प्रसिद्ध दि० ग्रन्थपरीक्षक जुगल किशोरजी मुख्तार भी त्रैवर्णिकाचारके लिये उपरसा ही मत जाहिर करते हैं। (देखिये, जैनका ता० 12, मई १३३५का अंक, पृ० 416.) अब पाठकों को स्वयं ज्ञात हुआ होगा कि-मैंने तीसरे प्रकरण के अंतमें जैन सत्य प्रकाश वर्ष 1 अंक 7 के पृष्ठ 216 में दिगम्बर आचार्योंकी ग्रन्थ निर्माण पद्धतिका जो स्वरूप बताया है वह कितने अंशमें ठीक है? और साथ ही साथ इस बातका भी कुछ कुछ परिचय मिल गया होगा कि-दिगम्बर शास्त्र कैसे बने ? / अस्तु / जैनं जयति शासनम् // (भाग-१, 2, समाप्त) - यहां 1. उत्पत्ति और 2 ग्रंथस्रष्टा ये दोनों भाग समाप्त होते हैं। अब ग्रन्थसर्जन नामका तीसरा भाग पाठकों के सामने समयपर रखा जायगा / For Private And Personal Use Only
SR No.521531
Book TitleJain Satyaprakash 1938 04 SrNo 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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