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स ] "या" मासिन। “सतम"भानु चित्र [२२८]
अमदावाद, ता. २९-९-१९३७ __ माननीय संपादय " कल्याण" की सेवामें,
गोरखपुर श्रीमान् महाशयजी,
“ कल्याण " के इस वर्षके विशेषांक " संतांक" के ४४८ वें पृष्ठके सामने भगवान् महावीरका जो चित्र छापा गया है उसके संबंधमें कुछ लिखना आवश्यक प्रतीत होनेसे यह पत्र लिखना पडा है।
(१) आपके इस महत्त्वपूर्ण विशेषांक में जो सेंकडों तीरंगे, दुरंगे या एक रंगे सुंदर चित्र छपे हैं उनकी चित्र-कला एवं सुन्दरताकी दृष्टिसे भगवान् महावीरका यह चित्र हलकी कोटिका दिख पड़ता है।
(५) भगवान् महावीरके इस चित्र में न केवल सुंदरता या कलाका ही अभाव है वरन इसमें सैद्धान्तिक विसंवाद रहा हुआ है । सुंदरता या कला का होना न होना एक बात है और सैद्धान्तिक विसंवाद या अविसंवाद दूसरी बात है । सुंदरता या कला का अभाव उपेक्षणीय हो सकता है, किन्तु सैद्धान्तिक विसंवादकी उपेक्षा नहीं हो सकती। इस चित्रमें इस प्रकार सैद्धान्तिक विसंवाद है-भगवान महावीरके मुख पर एक वस्त्रका टुकडा (जिसे जैन परिभाषामें मुखवस्त्रिका कहते हैं वह ) दोनों कानों के साथ बांधा हुआ बतलाया गया है । यह बात सिद्धान्त एवं इतिहासकी दृष्टि से बिलकुल विरुद्ध है । न भगवान् महावीरस्वामीने इस प्रकार मुखवस्त्रिका बांधी थी और न इस प्रकार बांधनेका कहा था । इस प्रकार मुखवस्त्रिका मुखपर बांधनेकी प्रथा, करिब ४०० वर्ष पहिले जिस स्थानकवासी जैन मतकी उत्पत्ति हुई है उस मतने जारी की है। भला, ४०० वर्ष पहिले प्रचलित की गई प्रथाका, २५०० वर्ष पहिले होने वाले ऐतिहासिक महापुरुषके चित्रमें संयोजन किया जाय वह कैसे समुचित हो सकता है ?
दूसरे-विचारणीय बात यह है कि-स्थानकवासी जैन संप्रदाय मूर्तिपूजा को बिलकुल नहीं मानता है । अतः उस संप्रदायके सिद्धान्तमें मूर्ति या चित्रका बिलकुल विधान नहीं है, तो फिर इस प्रकारके चित्रको कहाँसे अवकाश हो सकता है?
किसी स्थानकवासी सजनने आपको यह चित्र भेजा होगा, और आपके ख्यालमें यह बात नहीं होगी अतः यह छप गया है। लेकिन उपर लिखे अनुसार यह चित्र बिलकुल ठीक नहीं होनेसे, इस चित्रको देखनेवाले हरेक जैन भाईको आश्चर्य व रंज होगा । अतः आपसे प्रार्थना है कि इस संबंधमें “ कल्याण" के आगामी अंकमें योग्य सुधार-संशोधन, आपकी ओरसे प्रकाशित करके अनुगृहीत करें। पत्रोत्तर अवश्य लिख ।
भवदीय रातिलाल दीपचंद देसाई, व्यवस्थायक.
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