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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म २-3] સમીક્ષાશ્વમાવિષ્કરણ [१०६). प्रांते आ दिगम्बर लेखके कारणे अनेकवार कराता आहारमा आकाशकुसुम सदृश पांच दोषो कल्पो काढया छ, जेनो प्रत्युत्तर अमारा प्रथमना लखाणमां अमुक अंशे आवी जाय छे, छतां पण आखा लेखना सारांशरूप पांच दोषो तारवीने बतावे छे तो तेना प्रत्युत्तरमा आखा लेखनो प्रत्युत्तर संपेक्षे वाचक वर्गने सुग्राम थाय तेटला माटे ते विषय पर अमो आवीए छीए. दिगम्बर लेखके बतावेला पांच दोष तथा तेना प्रत्युत्तर १" महाव्रतधारी साधु दिनमें कितनी बार भोजन न करें यह नियम नही मालूम हो सकता, गडबड गुटाले में बात रह गई।" आना प्रत्युत्तरमा जणाववानुं जे निर्वाह थतो होय तो एक वार आहार करवो. वेयावञ्चादि पुष्टालंबनमा निर्वाह न थतो होय तो निर्वाहने लक्षमा राखी एकथी वधारे वार पण आहार लइ शकाय. आ वात शास्त्रकार भगवन्ते दीवा जेवी स्पष्ट प्रतिपादन करी छे जे अमो प्रथम विस्तार पूर्वक जणावी आव्या छीए, छतां पण कोइने गोटाळेो मालुम पडे तो ते तेना प्रज्ञा दोषने आभारी छे. २ “दिनमें दो तीन आदि अनेकवार आहार करनेसे साधु गृहस्थ पुरुषों के समान ठहरे, अनशन ऊनोदर तप उनके बिलकुल नठहरे ।" आना प्रत्युत्तरमां जणाववान के गृहस्थ जेम आहार करे छ तेम तमारा दिगम्बर मुनि पण आहार करे छे माटे तेने गृहस्थ सदृश मानवा के नहि ? कोइ गृहस्थ शरीरादि कारणे एकवार आहार करतो होय तो एकवार आहार करनार तमारा दिगम्बर मुनिने तेना समान गणवा के नहि ? आ वातमा समानता नथी एम जो कहेशो तो अनेकधार आहार करता गृहस्थ अने मुनिने समान कहेवामां वदतो व्याघात' थशे. हा पण नहि ज कही शको. कदाच एम कही शकशो के आहार-क्रियानी अपेक्षाए. समान छे. तो फरी प्रश्न पुछवामां आवशे के आहारक्रिया मुनिपणानी व्याघातक छ के नहि ? छे एम जो कहेता हो तो तमारा दिगम्बरमुनिए दीक्षा समयथी ज अणशण करवू जोइए, अथवा तेमने मुनि केम कही शकाय ? व्याघातक नथी एम कहेशो तो कबुल थयुं के गृहस्थ सदृश क्रिया करवामां पण मुनिपणानो व्याघात नथी. अने तेथी गृहस्थ सदृश मुनि थइ जशे एम जणावी जे दोषारोपण करेल छे ते तमारा हाथे ज दूर खसेडवू पडशे । ___वळी बीजो ए पण प्रश्न करवामां आवशे के आ आहारक्रियाना अंग कर्मबन्धनना विषयमां तमारा दिगम्बरमुनि तथा उपर्युक्त गृहस्थ सदृश छ के नहि ? छे एम तो कहेवं मुश्केली भरेलुं छे, कारणके एक भोजित्वने दिगम्बरदर्शने मुनिना मूळ गुणनी कक्षामां मूकेल छे, नथी एम कहेशो For Private And Personal Use Only
SR No.521525
Book TitleJain Satyaprakash 1937 09 10 SrNo 26 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages60
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size30 MB
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