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दिगंवर शास्त्र कैसे बने ? *. खकः-मुनिराज श्री दर्शनविजयजी
( गतांक से क्रमशः ) प्रकरण १४-आ० वीरसेन और आ० जयसेन पं. मनोहरलालजी लिखते हैं कि इस ग्रन्थको पहला सिद्धांतग्रंथ वा प्रथमश्रुत स्कंध कहते हैं । इसकी उत्पत्ति इस तरह है कि
" श्री वर्द्धमानस्वामी के निर्वाण होने के पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यत अंग़ ज्ञानकी प्रवृत्ति रही। इसके बाद अंगपाठी कोई भी नहीं हुए किन्तु भद्रबाहुस्वामी अष्टांगनिमित्त कान के (ज्योतिष के ') धारक हुए । इनके समयमें १२ वर्षका दुर्भिक्ष पडनेसे इनके संघसे अनेक मुनि शिथिलाचारी हो गये और स्वच्छंदवृत्ति होनेसे जैनमार्ग भ्रष्ट होने लगा । तब भद्रबाहुस्वामी के शिष्योनेसे एक धरसेन नामक मुनि हुए, जिनका आग्रायणी नामक दूसरे पर्वम पंचवस्तु महाधिकारके महाप्रकृत नाम चौथे प्राभूत (अधिकार ) का ज्ञान था सो इन्होंने अपने शिष्य भूतवलि और पुष्यदन्त दोनों मुनियों को पढ़ाया । इन दोनोंने षट्खंड नामकी सूत्र रचना कर ग्रंथमें लिखा, फिर उन षट् खंड सूत्रों को अन्य आचार्यों ने पढकर उनके अनुसार विस्तार से धवल, महाधवल, जयधवलादि टीका ग्रन्थ रचे । उन सिद्धांत ग्रन्थों को प्रातःस्मरणीय भगवान श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ति आचार्य महाराजने पढ़कर श्री गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसारादि ग्रन्थोंकी रचना की।"
-गोम्मटसारकी प्रस्तावना । यहां पंडितजीने सिद्धांतग्रन्थ का इतिहास लिखा है, साथ साथम यह भी स्पष्ट कर दिया है कि दि० संबके सब सिद्धांतग्रन्थ धवल आदिके आधार पर बने हैं, माने सब से प्राचीन सिद्धांत धवल ग्रंथ ही है । मगर पंडितजी के लिखने में गलती है । क्योंकि उसका विसंवाद भी स्पष्ट है, देखिए- .
१ पंडितजी लिखते हैं कि-वी० नि० सं०६८३में अंगज्ञान का ही विनाश हो गया, फिर लिखते हैं कि-भद्रबाहुस्वामी अंगज्ञान के विनाशके बाद के आचार्य हैं, उनके शिष्य आ० धरसेन दूसरे पूर्व के ज्ञाता थे। माने ११वे अंग और बारवे अंग के कुछ विभाग के ज्ञाता थे। इन दोंनो उल्लेखों म परस्पर विरोधि कथन है । परमार्थ यह है कि-जंग का विनाश हुआ नहीं है । वी० नि० सं० १००० तक तो पूर्ववेदी भी थे, अतः द्वि० · भद्रबाहुस्वामीजी और उनके बादमें भी कई वर्षों तक अंगपाठी और पूर्ववेदी श्रमण विद्यमान ही थे। आए धरसेन ऐसी अंगपाड़ी तथा
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