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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भा પંડિત ઈન્દચન્દ્રજી સે– [33] पं० इन्द्रचन्द्रजी का मत है कि -"भोजन करना प्रमादजन्य कार्य है जो कि छठे गुणस्थान में होता है" (पृ. ३८०) । इस दि० मत से हमें कोई आपत्ति नहीं है। कारण ! मुजे स्मरण है कि पं० बंशीधरजी शास्त्री और पं. हीरालालजी जैन शास्त्री ने किसी स्थान पर लिखा है कि - . " हमारी पूजा ही कल्पनामय है" "कालभेद से या मूल परम्परा के छिन्नभिन्न हो जाने और नाना परंपराओं के उत्पन्न हो जाने से आज प्रचलित रूप दिखाई पड़ता है" परमार्थ यह है कि – दिगम्बरी विधि में असली जैन परंपरा नहीं है। जो कुछ है सो कल्पित है। पं. कुन्दनलालजी ने भी जैनदर्शन, ब० ४, अ. ६, पृ. २७५ व २७८ में दिगम्बर पण्डितों की पण्डिताई दिखलाई है। ऐसी स्थिति में पं० इन्द्रचन्दजी भी एक नया मत चलावे यह स्वाभाविक ही है। वस्तुतः दिगम्बर समाज, तिर्थंकर के लिये विहार, उपदेशदान इत्यादि प्रवृत्ति आवश्यक है ऐसा मानता है, जिसमें प्रमाद नहीं है। और तीर्थकर को क्षुधा होने पर आहार ले तो प्रमाद होना मानता है वो कैसे ? तीर्थंकर को क्षुधापरिषह है, भूख लगती है, अंतराय कर्म है नहीं, फिर भी आहार का अभाव मानना यह तो नितान्त सम्प्रदाय --मोह हो है। पंडितजी सोचे कि-प्रमाद भूख को तीव्रता में होता है कि क्षुधा को शान्ति में याने तृप्तिभाव में ? अत एवं दिगम्बरमतामणी आचार्य सम्राट शाकटायनाचार्य भी तीर्थकर को और केवली को आहार लेना सप्रमाण मानते हैं: न दिगम्बरीय शास्त्र भी तीर्थंकर--भुक्ति को प्रमाण मारते हैं। जिसका विस्तृत रूप प्रसंग पर लिखा जायगा । पं. इन्द्रचन्द्रजी अपनी इन शंकाओं का उत्तर पृ. आ. श्री सागगनन्दजी मूरीश्वरजी आदि से गांगते हैं वह सर्वथा अनुचित है, यह मैंने पहिले दी लिम्ब दिया है। ____पं० इन्द्रचन्द्रजी ने पल्लीवाल समाज के लिये ये सब गप्प लिखी है और पल्लीवाल समाज के नेत्र खोलना ही ध्येय माना है । इतिहास कहता है कि-पल्लीवाल समाज के नेत्र खुल्ले ही थे । अन्तिम वर्षों में उपर्युक्त कारण से किसो के नेत्र बंद हुये होंगे । ठीक है, नैमित्तिक असर होतो ही है । मैं मानता हूं कि पल्लीवालों का अज्ञान पट दूर हो जायगा तो आप ही आप नेत्र खूल जावंगे। नेत्रों को खुले रग्बना यह श्वेताम्बरीय संकेत है । पंडितजी नेत्र खोट कर उन्हें स्वेताम्बरीय बाना हा चाहते हैन For Private And Personal Use Only
SR No.521524
Book TitleJain_Satyaprakash 1937 08 SrNo 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages62
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size29 MB
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