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समीक्षाभ्रमाविष्करण
[ याने दिगम्बरमतानुयायी अजितकुमार शास्त्रीए " श्वेताम्बरमतसमीक्षा "मां आखेल प्रश्ननो प्रत्युत्तर ]
लेखक-आचार्य महाराज श्रीमद् विजयलावण्यमूरिजी
( क्रमांक २२ श्री चालु )
साधु आहारपान कितने वार करे ?
बीज बाबमा लेख सूचयुं हतुं के -- 'बे वार आहार करवो ते सदोष वस्तु छे.' आना जवाबमां जणाववानुं जे-बे वार आहार सदोष छे एम जो मानता हो तो तमारो, दिगम्बरमान्य एक बार आहार छे ते पण तेना करतां अडधा दोषवाळो खरो के नहि नहि एम कहेशो तो कारण बताववुं पडशे. धर्मकार्य प्रयोजन छे एम कहेता हो तो ते प्रयोजन तो बे वारमां पण छे, माटे बे वारमां जो दोष तो एक वारमां पण मानवो पडशे, जो एक वारमां दोष नथी तो बे वारमां पण नथी. धर्मकार्य बन्ने स्थलमां लक्ष्य छे, कदाच एम कहेवामां आवे के तो तो तमारा मतमां एक वार अथवा अनेक वार फावे तेटली वार खाओ तेमां कांई दोष ज न रह्यो आना जवाब मां जणाववानुंजे, सामान्यतः मुनिए एक बार वापरकुं. एनाथी निर्वाह चाले छतां पण स्वादादिकने कारणे अनेक वार वापरे तो दोषना भागी बने. एक वारथी निर्वाह न चालतो होय अने धर्मकार्य सोदातां होय तो अनेक वार शुद्ध आहार वापरवामां पण दोष नथी.
तोजी बाबतमां लेखके सूचव्युं हतुं के - ' महत्त्वशाली व्यक्तिने अनेक वार आहार व परवानी शास्त्र छुट आपे छे ते अनुचित छे. '
आना जवाब मां जणाववानुं जे तमारुं दिगम्बरशास्त्र एक बार आहार वापरवानी छुट आपे छे ते उचित छे के अनुचित छे ! उचित छे एम कहेता हो तो शाथी ? धर्मकार्य साधवानुं लक्ष्य छे माटे. तो अमारुं शास्त्र पण धर्मकार्यने लक्षीने ज अनेक वारनी छुट आपे छे, नहि के स्वादादिकने माटे. बळी महत्त्वशालीने ज छुट आपे छे तेम नथी, परन्तु जेने जरूरत जणाती होय ते दरेकने आश्रीने. आ वात प्रथम अमो घणा विस्तार पूर्वक बतावी आव्या लीए. आगळ चालतां कल्पसूत्रना पाटने अवलम्बीने दिगम्बर लेखक जणावे छे के
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