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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અષાડ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ पुरातत्त्व के ज्ञाता विद्वानों का मन्तव्य है कि आपने राजवार्तिक की रचना में श्वेताम्बर जैन आगम का काफी सहारा लिया है ।* पं० गजाधरलालजी का मत है कि स्तोत्र, प्रायश्चित्त और प्रतिष्ठा आ० अकलंकदेव के नाम पर चढे हुए ग्रन्थ हैं। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, प्रस्तावना, पृ० ७ श्रीयुत पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार “अकलंक-प्रतिष्ठापाठ" की जांच पडताल करते हैं :-" नतीजा इस सम्पूर्ण कथन का यह है कि विवादस्थ प्रतिष्ठापाठ, राजवार्तिक के कर्ता भट्टाकलंकदेव का बनाया हुआ नहीं है और न विक्रम की १६वीं शताब्दी के पहले का ही बना हुआ है । बल्कि उसकी रचना विक्रम की सोलहवीं शताब्दी या सत्रहवीं शताब्दी के प्रायः पूर्वार्ध में हुई है। अथवा यों कहिये कि वह वि० सं० १५०१ और १६६५ के मध्यवर्ती किसी समय का बना हुआ है।" ........"अथवा इसका निर्माण किसी ऐसे व्यक्ति ने किया है जो इस ग्रन्थ के द्वारा अपने किसी क्रियाकांड या मन्तव्य के समर्थनादि रूप कोई इष्ट प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हो और इसलिए उसने स्वयं ही इस ग्रन्थ को बनाकर उसे भट्टाकलंकदेव के नाम से प्रसिद्ध किया हो और इस तरह पर यह ग्रन्थ भी एक जाली ग्रन्थ बना हो। परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि यह ग्रन्थ कोई महत्त्व का ग्रन्थ नहीं है।" -ग्रन्थपरीक्षा, भाग ३रा ___ अकलंक प्रायश्चित्त के लिये श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी ने जाहिर किया है कि "ये तत्त्वार्थ राजवार्तिक वगैरह महान् ग्रन्थों के कर्ता अकलंकदेव से भिन्न कोई दूसरे ही विद्वान् होंगे और आश्चर्य नहीं यदि अकलंक प्रतिष्ठापाठ के कर्ता हो इसके रचयिता हे । यह निश्चय हो चुका है कि अकलंक प्रतिष्ठापाठ के कर्ता १५वीं शताब्दी के बाद हुए हैं। (अकलंक प्रतिष्ठापाठ में आदिपुराण, ज्ञानार्णव, एकसन्धि-संहिता, सागारधर्मामृत, आशाधर प्रतिष्ठापाठ, ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचार और नेमिचन्द्र के प्रमाण उद्धृत किये गये हैं।) -मा०दि जै०० प्रकाशित नं०१८, प्रायश्चित्तसंग्रह, प्रस्तावना पृ० ९। (क्रमशः) * एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषूक्तम् , विजयादिषु देवा मनुष्यभवमास्कन्दन्तः कियतीगत्यागतीः कुर्वन्ति ? इति गौतमप्रश्ने भगवतोक्तं जघन्येनैको भवः आगत्या उत्कर्षेण गत्यागतिभ्यां द्वौ भवौं । - सनातन जैन ग्रन्थमालामुद्रित "राजवार्तिक" पृ० १७५ । इस पाठ से उपर्युक्त कल्पना सप्रमाण मालूम होती है । સૂત્રોમાં ગૌતમના પ્રશ્ન અને ભગવાન મહાવીરના ઉત્તરે એવી શૈલી ઘટમાન નથી. એથી એવી શૈલીવાળાં સૂત્રો દિગમ્બર સંપ્રદાય સમ્મત નથી. -4.2।७२मसत, मोक्षमागप्रश. [ આ અકલંકદેવ ભગવાન મહાવીરસ્વામીના પ્રશ્નોત્તર થયાનું સ્વીકારે છે. પં. ટેડરમલજી એ શૈલીને નિષેધે છે. આ દિગમ્બર પંડિતની બલિહારી જ છે ના?] . --पं० बहेचरदास जी० दोशी सम्पादित, गुजराती भगवतीसूत्र भा० ४ की प्रस्तावना, पृ० ११ For Private And Personal Use Only
SR No.521523
Book TitleJain Satyaprakash 1937 07 SrNo 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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