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૧૯૯૩
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દિગમ્બર શાસ્ત્ર કેસે બને? के राजा के समय में हुए हैं। दुर्विनीत राजा उनका शिष्य था । दुर्विनीत ने विक्रम संवत् ५३७ से ५७० तक राज्य किया है। वज्रनन्दी यद्यपि पूज्यपाद के शिष्य थे, फिर भी सम्भव है कि उन्हेांने उन्हीं के समय में अपना संघ स्थापित कर लिया हो । ऐसी दशा में ५२६ के लगभग उनके द्वारा द्राविड संघ की उत्पत्ति होना ठीक जान पडता है।
- दर्शनसार की प्रस्तावना, पृ० ३७.
अर्थात् आ० पूज्यपाद स्वामी विक्रम संवत् ५२६ व ५३५ के करोब में विद्यमान थे। आपने जैनेन्द्र व्याकरण, तत्वार्थ सूत्र के उपर सर्वार्थसिद्धि टीका, जैनाभिषेक छन्दशास्त्र और समाधि शतक स्वास्थ्य ग्रन्थ बनाये हैं। उनके समय तक वा० उमास्वातिजी के तत्वार्थाधिगम सूत्र पर सिर्फ स्वोपज्ञ भाष्य था, और पू० वाचकजी श्वेतांबर थे, अतः दिगम्बर विद्वानों ने उन मूल सूत्र और भाष्य का अब तक स्वीकार नहीं किया था । आ० पूज्यपाद ने दिगम्बर संघ में इस शास्त्र का प्रचार लाभप्रद माना
और आपने कुछ परावर्तन के साथ उस भाष्य के अनुकरण सी सर्वार्थसिद्धि नामक टोका बना ली । आपके इस प्रयत्न के फल स्वरूप मूल तत्त्वार्थ सूत्र दोनों सम्प्रदाय का मोक्ष-शास्त्र बन गया। आपने सूत्रों का परिवर्तन भी बहुत कम प्रमाण में ही किया है। इस तरह आपने दिगम्बर समाज में एक सिद्धांत-शास्त्र तैयार कर दिया और दिगम्बर समाज में भी तत्त्वार्थ सूत्र आगम के रूप में प्रतिष्ठित हुआ ।
श्वेतांबर और दिगम्बर समाज में द्रव्य लिङ्ग भेद के विषय में तीव्रतर मतभेद है । श्वेतांबर समाज अनेकान्त दृष्टि से पुरुष, स्त्री व नपुंसक तथा स्वलिङ्ग, परलिङ्ग और गृहस्थ लिङ्ग इन सभी द्रव्य लिङ्गों को भाव लिङ्ग की मौजूदगी में मोक्ष के योग्य मानता है, जब दिगम्बर समाज सिर्फ पुरुष और साधुलिङ्ग में ही मोक्ष की योग्यता मानता है ।
आपने एकांत लिङ्गाग्रही को सख्त फटकारा है, और भावलिङ्ग को ही प्रधान मानने का शिक्षण दिया है । जैसा कि -
येनात्मनाऽनुभूयाऽहमात्मनैवाऽऽत्मनात्मनि ॥
सोहं न तन्न सा नाऽसौ, नैको न द्वौ न वा बह ॥२३॥ आत्मा आत्मस्वरूप के अनुभव से आत्मदशा में स्थित होकर आत्मभावको पाता है, तब उसे ज्ञान होता है कि-में न पुरुष हूं, न नपुंसक हूं, न स्त्री हूं, न एक हूं, न दो हूं, न अनेक हूं, मतलब आत्मा आत्मा ही है । मोक्ष में जानेवाला वही है।
त्यक्त्वैवं बहिरात्मानं ॥२७॥
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