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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
अति
वर्ष का लंबा समय भगवान ने कहां व्यतीत किया, कौन वर्षाचातुर्मास्य किस स्थान में किया और वहां क्या क्या धर्मकार्य हुए, कौन कौन प्रतिबोध पाये इत्यादि बातों का कहीं भी निरूपण नहीं मिलता। पिछले चरित्रों में भगवान के केवलीजीवन के कतिपय प्रसंगों का वर्णन अवश्य दिया है, परन्तु उन में भी कालक्रम न होने से चरित्र की दृष्टि से वे बिलकुल महत्त्व - हान हो गये हैं ।
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३ मौलिक सामग्री में पारस्परिक विरोध
हमारी शिकायत यहीं पूरी नहीं होती। मौलिक चरित्र लेखक भी कई स्थानों में एक दूसरे के कथन से विरुद्ध चले गये हैं, और सब से विशेष शोचनीय बात तो यह है कि उन्होंने विषयनिरूपण में घटनाओं के कालक्रम का तो विचार ही नहीं किया ।
नीचे के विवरण से हमारे उक्त कथन की सत्यता समझ में आ सकेगी । आचाराङ्गसूत्रकार महावीर के तप के सम्बन्ध में लिखते हैं
" छठेणं एगया भुंजे अहवा अठमेणं दसमेणं दुवालसमेणं एगया भुंजे " अर्थात् ' वे कभी दो उपवास के बाद भोजन करते, कभी तीन, कभी चार और पांच उपवास के अन्त में भोजन करते हैं । '
अब आवश्यक निर्युक्ति, भाग्य और चूर्णि का मत देखिये; इन ग्रन्थों में महावीर के कुल तप और पारणा के दिन गिना दिये हैं जिनमें चार और पांच उपवास के तप का उल्लेख ही नहीं है ।
इसी प्रकार आवश्यक में महावीर की छमस्थावस्था का समय बराबर १२ वर्ष, ६ मास और १५ दिन का माना है और इसी हिसाब से उनके तप और पारणों की दिनसंख्या मिलाई है, परन्तु महावीर ने मार्गशीर्ष वदि १० को दीक्षा ली और तेरहवें वर्ष वैशाख सुद ● को केवलज्ञान पाया, यह छद्मस्थकाल सौर वर्ष की गणना से १२ वर्ष और साढे पांच मास, प्रकर्म संवत्सर की गणना से १२ वर्ष साढे सात मास और चान्द्र संवत्सर की गणना से १२ वर्ष साढे नव मास के बराबर होता है । आवश्यककार की कही हुई १२ वर्ष साढे छः मास की संख्या किसी भी व्यावहारिक गणना से सिद्ध नहीं होती ।
४ चरित्रों की अनवस्थित शैली
उक्त सूत्रकारों ने तो भगवान के परन्तु चरित्रकारों ने भी उसके लिखने का
केवलि - जीवन का स्पर्श ही नहीं किया, उपक्रम करके भी साधनाभाव से अथवा तो
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