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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૯૯૩ ૨૫૧ ભગવાન મહાવીર કે ઉપસર્ગ समय भगवान के मुख से एक भयंकर चोख निकल पड़ी। क्या कारण था कि भगवान के ऊपर ऐसे ऐसे कष्ट आये फिर भी भगवान ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया और कीलें निकालने में चिख करने की आवश्यकता हुई ? उसका कारण यह है कि उस समय कोई उपशांत मोहनीय कर्म का उदय आ गया था जिसके कारण भगवान के मुंह से यह चीख निकल पड़ी । अंत में भगवान को जूभीक नामक ग्राम के बाहर ऋजुवालिका नदी के किनारे पर केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान ने अपने जीवन में कैसे कैसे भयंकर प्रतिकूल और अनुकूल उपसर्गों का सामना किया ? उनसे अपने जीवन को कितना उत्कृष्ट व चारित्रमय बनाया ? उन सब उपसर्गों को अपने कर्मों की निर्जग का साधन मानकर बड़ी वीरता से उनको सहन किया। महावार के जीवन का महत्त्व उनकी इस कष्ट-सहिष्णुता में उतना नहीं है जितना आत्मबल और देहविरक्ति में है, जहांसे इन गुणों का उद्गम होता है । भगवान् महावीर की उपसी की सहनशीलता से यह बात भी झलकती है कि मानव जीवन के अन्दर जो कोई शारीरिक और मानसिक वेदनायें उपस्थित हो उन सबको शांति और प्रेम के साथ सहन करो। यदि मनुष्य दुःख को दुःखरूप माकर भोगता है, फिर भी उसे भोगना ही पड़ता है। और यदि उसे सम्व मानकर भोगे तो भी उसे भोगना पड़ता है। ऐसी अवस्था में हम दुःख को सुखरूप मानकर क्यों न भोगें ? इनके ऊपर आये हुए उपसर्ग यह भी बतलाते हैं कि मनुष्य जब अनुकूल व प्रतिकूल दोनों प्रकार के उपसों के ऊपर विजय प्राप्त करता है तब ही वह केवलज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। भगवान के जीवन में यही विशेषता है कि उनको अन्छे और बुरे दोनों वातावरणों में उपस्थित होना पड़ा । यह तो निश्चय है कि उपसर्गों को सहन किये बिना और कमेंों के ऊपर अपना आधिपत्य जमाये बिना कभी किसीने अपना आत्मकल्याण नहीं किया । संसार में जितनी भी महान विभूतियें हुई हैं उन सबको इसी तरह के कष्ट सहन करना पडे हैं । किसी मनुष्य को एकदम फांसी के तख्ते पर लटका कर मार डालने में जितना कष्ट नहीं होता है उतना सुई चुभा चुभा कर मारने में होता है । यद्यपि मरना दोनों में समान है किन्तु मारने की विधि में आकाश पाताल का अन्तर है। बस ! इसी तरह दूसरे लोगों की अपेक्षा भगवान् महावीर के उपसर्ग अतीव कष्टप्रद थे जिनका सामना करने में महावीर का महावीरत्व प्रकाशित होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
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