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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
कर कायोत्सर्ग में खड़े हो गये । उस समय उनके हृदय में किंचित् मात्र भी डर को स्थान नहीं था । इतने ही में वह सर्प बाहर निकला, और अपने राज्य के अंदर एक मानव को इस तरह निडर खड़े हुए देखकर वह क्रोध में आग बबूला हो गया । उसने उसी समय इतने जोर से फुक्कार मारी की वहां का सारा वायु मण्डल जहर से नीला और ज्वालामय हो गया । आकाश में उड़नेवाले पक्षी और आसपास के जीव धड़ाधड़ जमीन पर गिर पड़े, किन्तु वह सर्प आश्चर्य से देखने लगा कि वह मानव तो ज्यों का त्यों ध्यानस्थ खडा है । इससे उसका क्रोध और बढ़ गया और उसने जोर से भगवान् महावीर के अंगूठे पर काटा, फिर भी आत्मबल के प्रभाव से उस विष का कुछ असर भगवान वीर के शरीर पर नहीं हुआ ।
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जड़वाद के इस युग में इस घटना पर सहसा कई लोग विश्वास न करेंगे, क्यों कि यह बात उनको अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम होगी, किन्तु इसमें संशय को किंचित् मात्र भी स्थान नहीं है । हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कितने लोग मन्त्र - के प्रभाव से बड़े भयंकर सर्पों को पकड़ लेते हैं, उनका जहर उतार देते हैं, यहां तक कि सर्प के काटने का उनके उपर कोई असर भी नहीं होता है । ऐसी अवस्था में ऐसे महान् योगी के शरीर पर सर्प का विष असर न करे यह स्वाभाविक ही है 1
चण्डकौशिक ने जब देखा कि मैंने इस मानव को इतने जोर से काटा फिर भी यह पूर्व की तरह वेसे ही ध्यानस्थ है, इसके मुख मण्डल पर किंचित् मात्र भी क्रोध, दुःख या भय की छाया नहीं है; इससे मात्रम होता है कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, उसी समय उसका क्रोध शांत हो गया, और उसने भगवान् के पैरों में आलोना शुरू किया । भगवान ने उससे कहा कि "बुज्झ बुज्झ, चण्डकोसिया ! तू अपने पूर्व भव का स्मरण कर, अपनी आत्मा की दशा को देख, और अपने इन बुरे कृत्यों को छोड़कर कल्याण - मार्ग की तरफ प्रवृत्ति कर जिससे तेरा यह भव और पर भव दोनों सुधर जाय । " इस प्रकार की कल्याण करनेवाली मधुर बागी को सुनते ही चाण्डकौशिक को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । उसने अपने पूर्व भव की सब बात जानी। उसी समय उसे विचार हो गया कि पूर्व भव में क्रोध करने से मेरी यह दशा हुई, यदि अब भी मैं इस प्रवृत्ति को नहीं छोडूंगा तो भविष्य में न मालूम और मेरी कितनी अधोगति होगी । यह सोच कर उसी दिन से उसने अपना जीवन वैरागी की तरह शांत बना लिया । अंत में उसी स्थिति में मृत्यु पाकर वह शुभ - देव गति में उत्पन्न हुआ ।
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