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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८३ ભગવાન મહાવીર કે ઉપસર્ગ २४७ निकला । उसने कायोत्सर्ग में चुपचाप खड़े इस तपस्वी को देखकर विचार किया कि में अपने दोनों बैलों को इस के पास छोड़कर अपना कार्य कर आता हूं, यह खड़ा खडा क्या करता है ! क्या यह इतना भी ध्यान नहीं रक्वेगा कि मेरे बैल इधर उधर न हो जाय । गुवाला चला गया, बैल भी चरते चरते बहुत दूर निकल गये । भगवान् महावीर तो अपनी ध्यानस्थ अवस्था में लीन थे । उनको उसके बैलां का किंचित् मात्र भी ख्याल नहीं था । इतने में गुवाला वापिस लौट कर आया । उसने भगवान् महावीर से अपने बैलों के लिये पूछा, किन्तु भगवान् तो अपने ध्यान में लीन थे, उनको गुवाले की बात से क्या मतलब ? उन्होंने उसका कोई उत्तर नहीं दिया । गुवाला बैलों को ढूंढते ढूंढते दूसरी ओर निकल गया । दैवयोग से बैल चरते चरते फिर महावीर के पास आकर खड़े हो गये । गुवाला बैलां को ढूंढ ढूंढ कर हैरान हो गया, तो फिर वापिस महावीर के पास आया। वहां पर अपने बैलों को खड़े हुए देख कर उसको अत्यंत क्रोध उत्पन्न हो गया, उसने विचार किया कि यह सब इसकी करतूतें हैं । यह इस तरकीब से मेरे बैलां को उड़ा कर ले जाना चाहता है। और वह भगवान को मारने के लिये तत्पर हुआ, किन्तु भगवान महावीर अपनी पूर्व अवस्था की तरह निश्चल ध्यान से खड़े रहे । उनको किंचित् मात्र भी ख्याल नहीं हुआ कि यह गुवाल बिना विचारे मेरे ऊपर क्यों प्रहार कर रहा है ! अज्ञानी जीव बिना विचारे अपने स्वार्थ के कारण कैसे कार्य कर बैठते हैं यह इससे अच्छी तरह सूचित होता है । चंडकौशिक को प्रतिबोधः इसी तरह भगवान् महावीर अपने कर्मों की निर्जरा करते हुए विहार करते करते · श्वेताम्बरी' नगरी की ओर चले । मार्ग में एक गुवाल के पुत्रने उनसे कहा कि 'हे देव ! यह मार्ग · श्वेताम्बरी' नगरी को सीधा जाता है किन्तु रास्ते में एक दृष्टि-विष सर्प रहता है । उसके भयंकर विष–प्रकोप के कारण उस जमीन के आसपास मनुष्य तो क्या पशु पक्षी भी नहीं जाते । अतः आप कृपया इस मार्ग से न जाइये ।' भगवान् महावीर तो परम योगी व उपसर्गों का सामना करने में पर्वत के समान निश्चल थे, उनको उपसर्गों की परवाह न थी। भगवान ने उसी समय अपने दिव्य ज्ञान से उस सर्प को पहिचाना। उन्हें मालूम हुआ कि सर्प भव्य है और वह जल्दी ही सीधे मार्ग पर लाया जा सकता है । अतः भगवान ने उसकी बात की तरफ बिलकुल ख्याल नहीं किया और चुपचाप उस मार्ग की तरफ चल निकले । थोडी देर में ही वे उस सर्प के निवासस्थान के पास For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
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