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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir णमो त्थु णं भगवओ महावीरस्स # सिरि रायनयरमझे संमीलिय सव्वसाहुसंमइयं । पत्तं मासियमेयं भव्वाण मग्गयं विसयं ॥१॥ છે ક થી જૈન સત્ય પ્રકાશ ન माणग्गहदोसगत्थमइया कुवंति जे धम्मिए, अक्ग्वेवे खल तेसिमागमगयं दाउं विसिद्धत्तं॥ सोउं तिथयरागमन्थविसए चे भेऽहिलोसा तया, बाइजा पवरं पसिद्धजइणं सच्चप्पयासं मुया ॥२॥ પુસ્તક ૨ विम संवत् १९९२: વીર સંવત ૨૪૬૨ (પ્રથમ) ભાદ્રપદ શુક્લા પંચમી શનિવાર ४२ :सन १८१ એંગર ૨૨ अनेकान्तवाद हमारे विचार में तो अनेकान्तवाद का सिद्धान्त बड़ा ही सुव्यवस्थित और परिमार्जित सिद्धान्त है । इसका स्वीकार मात्र जैनदर्शन ने ही नहीं किया किन्तु अन्यान्य दर्शनशास्त्रों में भी इसका बडी प्रौढता से समर्थन किया गया है । अनेकान्तवाद वस्तुतः अनिश्चित एवं संदिग्धवाद नहीं किन्तु वस्तुस्वरूप के अनुरूप सर्वांगपूर्ण एक सुनिश्चित सिद्धान्त है । । दर्शनशास्त्रों के परिशीलन से हमारा इस बात पर पूर्ण विश्वास हो गया है कि अनेकान्तवाद का सिद्धान्त, अनुभवसिद्ध, स्वाभाविक तथा परिपूर्ण सिद्धान्त है। इसकी स्वीकृति का सौभाग्य किसी न किसी रूप में सभी दार्शनिक विद्वानों को प्राप्त हुआ है । अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को सर्वथो अबहेला करके कोई भी तात्त्विक सिद्धान्त परिपूर्णता का अनुभव नहीं कर सकता ऐसा हमारा विश्वास है । __ --पं. हंसराजजी शर्मा | "दर्शन और अनेकान्तवाद"से उद्धृत | For Private And Personal Use Only
SR No.521514
Book TitleJain Satyaprakash 1936 08 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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