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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DATE समीक्षाभ्रमाविष्करण । याने बिग बगतानुयायी अजितकुगार शास्त्रीए " श्वेताम्बरमानसमा "मां आलेखेल प्रश्ननो प्रत्युत्तर लेक आचार्य महाराज श्रीमद् विजयलावण्यमरिजी ::: m : :: i li (गतांकथी चालु) साधु आहारपान कितने वार करे ? आगल जता लेखक लग्वे छे "किसी ३. वैयावृत्य करनारे १नार खाबानो मुनिकी सेवा करनेवाला साधु इस लिये नियम तोडीने बे वार खावं । अपने एकवार भोजन करनेके नियमको ४. तपस्या करतां वेयावच्च अधिक नथी तोडकर दो बार दिनमें आहार करे क्योंकि एवं सूचन । तप करनेसे वैयावृत्य उत्कृष्ट है। यह भी हवे आपणे आ बाबतीनो अनुक्रमे अच्छे कौतुककी बात है । इस तरह तो विचार करीए। साधुओंको तपस्या छोडकर केवल वैयावृत्यमें लगजाना चाहिये क्योंकि भोजन भी दो बार प्रथम बाबतमां जणाववानुं जे हमेशा कर सकेंगे और फल भी तपस्थासे अधिक एक ज वार खावु आवो नियम याने प्रतिज्ञा मिलेगा। दीक्षा लेती बरखते अथवा पालथी करल ज आ लेखकना लग्वाग परथी नीचे प्रमाणे नथी। दीक्षा समये जेम सामायिक बगेरना चार बाबतो तरी आवे छे:---- आलावा उच्चगवामां आवे छे तेम, हमेशा एक १. साधुओने हमेशा १ बार खावानो ज बार खावु आवो कोई आलावो उच्चरावेलो नियम होय छे. अने बे वार वापरवामां ते होता नयी । तेम पाटलथी प। हरेक साधुओने नियमनो भंग थाय छे । एक ज वार खावू जोईए ए सम्बन्धना आलावा २. तपस्या करतां वेयावच्चगां वधारे उच्चराववानो उल्लेख पण जोवामां आवतो लागले माटे तप छोडी छोटीने वेयावनगांज नथी। माटे तमाग मुनिराजोने हमेंशा एक ज जोडावू जोइए। बार बापरवानो नियम छे, आq कहेवू ते For Private And Personal Use Only
SR No.521514
Book TitleJain Satyaprakash 1936 08 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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